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________________ पर आश्वासः जिने जिनागमे सरो सपश्रुतपरायणे । सब्राषथुद्धि संपन्नोऽनुरागो भक्तिभ्यते ॥ २१८ ।। चातुर्वर्ण्यस्य सखस्य पायोग्य प्रमोदवान् । मास यस्तु नो कुरा भवेत्समयी कथम् ।। २१९ ।। 'तन्नतविद्यया वितः धारोः श्रीमाभयः' । त्रिविघात संप्राप्तानुपकुर्वन्तु संवतान् ॥ २२० ।। श्रूयतामोपाण्यानम् - अवन्तिविषयेषु सुपावतोपपद्धिशालायां"विशालायां पुरि प्रभावतीमहादेषीभिप्तशामसीमा जपचमंगामा 'काश्यपीश्वरः शाक्यवावयवारिधिविक्रान्तिनश्रेण शुक्रेण चाकिलोकदिवस्पतिना' बृहस्पतिना मुनानुदितविकेन प्रहावकेन धानुजेनानुयतेन वेदविद्यावलिमा बलिना सचिन चिन्त्यमानराज्यस्थिति रेकवा समस्तशास्त्राभ्यासवर्षविस्फारितसरस्वतीतरङ्गपरम्पराप्लायमवित्रितविनेयजनमनोनलिननिकुसम्यस्य परमतपश्चरणगुणग्रहणानि ह्मणास्तम्बस्य" महामुनिमञ्चमातीवयंस्य भगवतोऽकम्पनाबार्यस्य महडिजुषः सर्वजनानन्दनं नाम नगरोपरनषितस्यूषाचरणार्चनोपचाराय राजमार्गषु महामहोत्सवोत्साहरे 'सेकिपरिमनं पौरजममलिहगेहाप्रभागा'४. है, जो कि मुक्ति श्री की प्राप्ति का कारण है ।। २१७ ॥ बोतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र तीर्थकर भगवान में, उनके द्वारा कहे हुए द्वादशाङ्ग रूप शास्त्र में, आचार्य में, तप में तत्पर हुए साधु में और श्रुत के पारदर्शी उपाध्याय परमेष्ठी में विशुद्ध भाव पूर्वक प्रकट हुए अनुराग को आचार्यों ने भक्ति कहा है ॥ २१८ ।। जो प्रमुदित होकर मुनि, ऋषि, यति व अनगार इन चार प्रकार के संघ के प्रति यथायोग्य वात्सल्य नहीं करता वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ? || २१९ ।। अतः ब्रतों के देने द्वारा, शास्त्रों के अध्यापन द्वारा, धन के दान द्वारा, उनके शरीर को सेवा द्वारा एवं उत्तम ( तप व स्वाध्याय के योग्य ) स्थान के दान द्वारा शारीरिक ( बुखार व मलगण्ड-आदि), मानसिक ( काम-क्रोधादि ) व आगन्तुक (अतिवृष्टि-आदि ) दुःखों से पीड़ित हुए संयमी जनों का उपकार करना चाहिए ।। २२० ।। अब बात्सल्य अङ्ग में प्रसिद्ध विष्णुकुमार मुनि की कथा कहते हैं अवन्तिदेश की उज्जयिनी नामकी नगरी में, जिसके भवन देवों के भवनों से स्पर्धा करने वाले हैं। प्रभावती महादेवी के अधीन हुई सुख-सीमावाला 'जयवर्मा' नाम का राजा राज्य करता था, जिसका राज्य संरक्षण चार मन्त्रियों द्वारा सम्पन्न होता था। १. बौद्ध-सिद्धान्तरूपों समुद्र में प्रविष्ट होने के लिए मकर सरीखा ( बुद्ध मतानुयायी) 'शुक' | २. नास्तिक-मत में इन्द्र-सा बृहस्पति । ३. रुद्र-मुद्रा से उत्कट बुद्धिवाला (शंव-सम्प्रदाय का अनुयायी) प्रल्हादक और ४. बलि नामका मंत्री, जो कि प्रल्हादक का छोटा भाई व उसका अनुयायी एवं वेदविद्या में पारंगत ( बैदिक मतानुयायी ) था। एक बार राजा गगनचुम्बी महल के अग्रभाग पर आरोहण के अवसर पर "दिग्विलांकानन्द' नाम के राजमहल पर स्थित था। उन्होंने ऐसे अकम्पनाचार्य के चरण कमलों की पूजा के लिए राजमार्ग से जाते हुए नागरिक मनुष्य-समूह को देखा, जिसका कुटुम्बोजन महापूजा का उत्सव देखने के उत्साह से गवित था। जो कि (अकम्पनाचार्य) एक समय उक्त नगरी के 'सर्वजनानन्द' नाम के बगीचे में आकर ठहरे हुए थे, जो पांचसी महामुनियों को संध में प्रधान थे, जिन्होंने शिष्यजनों का मानरूपी कमल-समूह समस्त शास्त्रो की अभ्यासरूपी वृष्टि से बढ़ी हुई सरस्वती ( द्वादशाङ्ग वाणी) रूपो नदी की तरङ्ग परम्परा में स्नान कराने से पवित्र १. अलदानेन उपकारं कुर्वन्तु । २. उसमस्थान : फुरवा । ३. मारोरमानसागन्तुक । ४. सुधान्ध सोमृतभोजनाः देवाः । ५. उज्जयिन्या । ६. भूपत्तिः । ७. मकरेण 1 ८. इन्द्रेण । ९. उत्कट । १०. सरल, पटुः । ११. स्तम्बः आलानगुल्मयोः बह्मादीनां प्रसाई च, भुवनत्रयं, पटुभुवनत्रयस्य । १२. स्थितवतः। १३. गवित । १४. आरोहणावसरे ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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