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________________ पञ्चम आश्वासः ११५ जिलाबलिद्यमानमृगतृष्णिकातरङ्गाम, पयश्चित्प्रचण्डगडकवधन विधार्यमाणहरुधिररीक्षवृक्षानीकम, बधिनियाल्यशस्लाशालाकाणालफोल्पमानरल्स फलोफलोकम्, एवमररपि सस्वरनायकायकाशवेशमिय माध्यमानपरस्परजीवित्तन् । ___यन य वल्लयो. मृगावाः , या व्यासमवर्शनाः, सरवोऽपि निस्त्रिशपत्तप्तमालकाः, तृणान्यपि विषाणीव प्रागादेव मनोमोहनकराणि । कप। यप्रिमोद्गमस्थलस्तबकामोगसंगमम् । सिंहशारकुलाकीर्ण महानौलनगोपमम् ॥२०॥ पत्ते पद्विकिराकीर्णकुड़मलाविलभूषणम् । करिवरिप्रमिन्नेभनुम्ममुक्ताफश्रियम् ॥२१॥ प्राप्त कर रहा है। किसी स्थान पर प्रचण्ड बायु से उखाड़े हुए वृक्ष समूह द्वारा व्याकुलित हुए हाथियों के बच्चों का, जहाँ पर पर्यटन पाया जाता है। किसी स्थान पर, पर्वतों के लताओं से आच्छादित प्रदेशों पर हाथियों द्वारा तोड़ी जानेवाली वृक्षश्रेणी पर वर्तमान पक्षियों की व्यनि से जहां पर जरा-जीर्ण खञ्जरोटों के चित्त का विस्तार हो रहा है। किसी स्थल पर व्याघ्रविशेषों के समूह द्वारा दांतों से पकड़े हुए मृगों के खुरों से जहां पर कदलियों ( मुगविशेषों) के प्रवालों ( प्रकृष्ट बच्चों) का मन, अथवा लघु वृक्षों के पल्लवों का मध्य भाग खण्डित (चूरचूर ) किया जा रहा है। किसी स्थान पर विशेष प्यास से पीड़ित होने के कारण दौड़ते हुए मृगों की जिह्वाओं से जहाँ पर मृगतृष्णा की तरफ़ चाटी जा रहीं हैं। किसी स्थान पर विशेष शक्तिशाली गेंहों के मुखों से विदीर्ण किये जा रहे मूगों के रुधिरों से जहां पर वृक्ष-समूह दुःख से भी देखने के लिये अशक्य है। किसी स्थान पर निर्भय सेहियों की शलाका-श्रेणियों द्वारा जहाँ पर मृगविशेषों के विश्वलोक ( समूह ) घायल किये जा रहे हैं । इसी प्रकार दूसरे हिंसक प्राणियों द्वारा जहां पर परस्पर का जोबन, वेसा घात किया जा रहा है जैसे राजा मे शून्य देश में प्राणियों द्वारा परस्पर का जीवन घात किया जाता है । जहां पर लताएं भी मृगादनीप्रायाः ( लताविशेषों की प्रचुरता से युक्त ) हैं। एवं दुसरा अर्थ-जहां पर मृमादनी ( मृगों का भक्षण करने वाली बहेलियों की स्त्रियाँ ) बहुलता से पाई जाती हैं। जहां पर लताएँ भी व्याघ्री-समदर्शन ( बृहती-भटकटैया ( कटेहलो) सरीखो दर्शनवाली ) है । अथवा व्याघीसमदर्शन (चीते की मांदा-सरोखे दर्शनदाली) है। जहाँ पर वृक्ष भी निस्विशपत्रसमालोक ( सेहुण्ड वृक्षों के दर्शन वाले ) हैं अथवा निस्त्रिशरत्त्रसमालोक (निर्दयवाहन जीवों-सिंह व शूकर-आदि के दर्शनवाले ) हैं! एवं जहाँ पर तृण (घास ) भी विष-सरीखे गन्ध-ग्रहण करने मात्र से चित्त में अचेतनता उत्पन्न करते हैं। अब उक्त वन का विशेष वर्णन करते हैं जो मुख्य और विशाल पुष्पों के गुच्छों को परिपूर्णता का संगम वाला है एवं जो सिंहों के बालकसमूह से व्याप्त है तथा जो महानील पर्वत-सरीखा है |२०|| जो ( वन ) पक्षियों से गिरी हई पूष्प-कलियों से व्याप्त हुए भूमिभाग को धारण करता है और सिंहों द्वारा विदीर्ण किये हुए हाथियों के गण्डस्थलों की मोतियों की श्रेणी की शोभा को धारण करता है ।।२१।। विशेष वर्णन-जो समस्त अटवी ब्रह्माजिसितमण्डला ( ब्रह्मा से अवक्र प्रदेश वालो होकर के भी सव्याधा ( बहेलियों-सहित ) है। यहां पर विरोध प्रतीत होता है। क्योंकि जो श्री ब्रह्मा द्वारा अबक्रप्रदेश वाली होगी, वह वहेलियों से व्याप्त कैसे हो सकती है? इसका परिहार यह है कि जो ब्रह्मा-आ-जिलिसमण्डला - -.. १. उपमालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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