SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अत्रान्तरे मगधमध्यप्रसिचारायायामयोध्यायां नरवरः सगरो नाम । स फिल लास्याविविला 'सोशलसरसापाः सुलसायाः कर्णपरम्परया अतसोकप्यातिशयो रमनागुपरमसाइण्यासावयोवमः प्रयोगेण तामात्मसारिकोर्ष. स्तौफिसत्र प्रसिफर्मभिकल्पेषु संभोगसिद्धान्ते "विप्रधनविधायर्या स्त्रीपुरुषलक्षणे फवापयायिकाख्यानप्रवाहीकास्थपरा तासु सासु कलासु “परमसंवीणतालसारित्री मन्दोदरों माम पात्रों ज्योतिषाधिशास्त्रनिशितमतिप्रसूति विश्वभूति ध बनुमानसंभावितमनसं पुरोभस तत्र पुरि प्राहिणोत् । विशिकावायशालपरी' मन्दोदरी तां पुरमुपगम्य परप्रतारणप्रगरुमममीषा कृतकात्यायिनोवेवा ससरकलावलोकनकुनहलमयोधनवरापालं निजनायालिडिमरवतो१५ रजिसघती सती शुद्धान्तोपाध्यायी भूत्या सुलसा सगरे संगर' प्राहयामास । तया अकोटयतिबंधाः स पुरोषाश्च संसरादेशस्तस्य नृपल्य महादेवयाश्या वशीकृतषिसवृतिः। प्रभाव अचानक सुख-दुःस्त्र के आगमन से अनुमेय है। ऐमा जानकर उसमें स्वयंवर के लिये भीम, भीष्म, भरत, भाग, सङ्ग, सगर, सुबन्धु, ओर मधुपिङ्गल-आदि राजाओं के पास भेंट पूर्वक पर भिजवा दिये ।। [ इसी बीच एक दूसरी घटना घटी] मगध देश के मध्य में ख्याति प्राप्त करने में माराधना के योग्य अयोध्यानगरो में 'सगर' नामका राजा था। निस्सन्देह उसने कर्णपरम्परा से नत्यादि कलाओं को निपुणता से व विलास । हावभाव ) को चतुरता से रसीली सुलसा राजकुमारी को सर्वोत्कृष्ट अनोखो सुन्दरता की चर्चा सुनी । इस राजा को जवानी को सौन्दर्य-वृद्धि कुछ अल्प हो रही थी । अतःवह किसी भी उपाय से उसे अपने अधीन करने का इच्छुक हुआ। अतः उसने 'मन्दोदरी' नामको चाय को, जो कि भरत मुनि के गीत, नत्य व वादिवरूप समोताकला में, मण्डनआभरण-आदि में, कामशास्त्र में, होराक्षरादि द्वारा दूसरे को मनोवृत्ति के ज्ञान में, स्त्री-पुरुषों के लक्षण-ज्ञान में, कथा ( चित्र अर्थ बतानेबाली ), आख्यायिका { प्रसिद्ध अर्थवाली कथा ), आख्यान ( दृष्टान्त-कधन ) व पहेली और दूसरी ललित कलाओं में विशेष पटुतारूपी लता को पल्लवित करने के लिए पथिवी-सरीखी थी। तथा ऐसे विश्वभूति नामक पुरोहित की, जिसकी बुद्धि का प्रसार ज्योतिष-आदि शास्त्रों में तीक्ष्ण था एवं जिसका मन विशेष सन्मान से आह्लादित था, हस्तिनागपुर भेजा । मन्दोदरी धाय ने, जो कि दूसरों को धोखा देने के उपाय संबंधी अभिप्राय के लिए व्याघ्र को गुफाजैसी थी और जिसकी बद्धि दूसरों को ठगने में प्रवीण थी, उस नगर में पहुंच कर कात्यायनी ( समस्त लोक द्वारा नमस्कार करने के योग्य वेषवाली, समस्त मालाओं में प्रवीण, प्रौढ़ अद्धवृद्धा नारो) 'फा वेप बनाया और अपने स्वामी को प्रयोजन-सिद्धि करने में तत्पर हुई । इसने उन उन कलाओं के देखने का कौतूहल वाले अयोधन राजा को अपने ऊपर विशेष प्रसन्न कर लिया और अन्तःपुर को अध्यापिका होकर सुलसा से सगर राजा को १. नृत्यविशेप । २. विरमत् । ३. 'प्रयोगस्तु निदर्शने कामणे च प्रयुक्तौ च केनाप्पुपायनत्यर्थः' टिस, 'प्रसाधनेग' टि० च० । ४. 'मण्यनाभरणादिपु' टि० ख०, 'नेपथ्य' टि० च० । 'प्रतिकर्म नपुण्यं' इति पञ्जिकायो । ५. होराक्षरादिभिः पचित्तज्ञाने अथवा अहोरात्र्यादिभिः परचित्ताने । ६. कथा वित्रार्थगा जेया श्यातार्थावस्यायिका मता। दृष्टान्तस्योतिराख्यानं प्रबाहीका प्रहेलिका ॥ १ ॥ ७. पटुता। ८. विशिका परचनोपायः। १. क्यानगुहापि प्राणात्यये अतसे । १०. 'अर्द्धवृद्धा' टि. स., पञ्जिकाकारस्तु कात्यायनी लक्षणं प्राह'सबलोकनमस्कार्यवेषाऽशेपकलाश्रया । कात्यायनो भवेत्रारी प्रगल्भातीतयौवना' ॥१॥ ११. तत्परा । १२. अन्तःपुर । १३. संगरं प्रतिज्ञा।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy