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________________ सप्तम आश्वासः ३३७ श्रूयतामषासत्यफलस्योपाल्पानम्-जाङ्गलदेशेषु हस्तिनागनामावनीश्वरकुञ्जरजनितायतारे हस्तिनागपुरे मचनोवंण्डमण्डनीमण्डनमण्डलाम खनितभण्डनकपडू लारातिकोतिसतानिबन्धनोऽभूदयोधनो नाम नुपतिः । अनवरतवमुविधाणनप्रोणितातिपिरतिधिर्नामा चास्य महादेवी। सुता चानयोः सकलकलावलोकानलसा सुलसा नाम । सा किस तया महाव्या गभंगतापि शालेयेनकोनरशायिनो' रम्यकदेशनिय शोपेतपोदनपुरनिविश्नों "निर्विपक्षलक्ष्मौलक्षिताणमङ्गलस्य' मिङ्गलस्य ५"गुणगीर्वाणाचलरत्नसानवे सूनवं सुरिवरियक्षःस्थलोद्दलना", बचानोद्योगलागलाय मधुपिङ्गलाय परिणिता पंचभूव । भूभुजा घ महोवयेन तेन विवितमहादेपोहत्येनापि 'पस्य कस्यचिन्महाभागस्य भाग्य ग्यतया योग्यमिदं स्वणं अविणं तस्यंत यात् । अत्र सर्वेषामपि षष्मतामचिन्तितसुखदुःपागमानुभयप्रभा देवमेव शरणम्' इस विगणस्य' स्वयंवरार्थ भीम-भीष्म-भरत-भाग-सह-समर-सुबन्धु-मधुपिङ्गलादीनामनिपतीनामुपदानुकूलं मूल प्रस्थापर्यावभूवे। प्रवृत्त होती है, उस उस विषय में मान्य होती है ॥ १२१ ।। इसके विपरोत जो मानव तृष्णा, ईर्षा, क्रोध व हर्ष-आदि के कारण झूठ बोलने को बुद्धि वाला होता है, उसे इस लोक में जिह्वाच्छेदन-आदि कष्ट होते हैं और परलोक में न हो युगति नालोनी है. सति-दुर्गति होती है ।। १२२ ।। १५. असत्यभाषी वसु और पर्वत-नारव को कथा प्रय झूठ बोलने का कटु कफल बतलाने वाली कथा सुनिए गाङ्गलदेश के 'हस्तिनाग' नामक श्रेष्ठ नराशा का जन्म होने के कारण सार्थक नाम वाले 'इस्तिनागपुर' नाम के नगर में, अपना प्रचण्ड वाहुदण्डमण्डली के अलवाररूप खड्ग द्वारा युद्ध करने को खुजली वाले शत्रुओं को कीतिरूपी लता को बुडित करने में कारणीभूत 'अयोधन' नामका राजा था । इसकी निरन्तर धन के दान द्वारा अतिथियों को सन्तुष्ट करनेवाली 'अतिथि' नामको 'पट्टरानी थी। इनके समस्त कलाओं के अभ्यास में प्रयत्नशील 'मुलसा' नामको पुत्री थी। जब राजकुमारी सुलसा महारानी के गर्भ में यो, तभी से महारानी ने निस्सन्देह रम्यक देशव पोदनपुर नगर के निवासी, जिसका परिपूर्ण मङ्गल (राज्यमुख) शत्रु-रहित राज्य लक्ष्मी द्वारा जाना गया था बजा महारानी का सहोदर था, ऐसे अपने भाई पिङ्गल के पुत्र ऐसे मवुपिङ्गल के लिये बाग्दान ( देनों) कर रखा था, जो गुण ( वीरता-आदि ) रूपी सुमेरु पर्वल का रत्नमयो शिखर था और जिसका उद्योगरूपी लाजल ( हल ! दुःख से भी निवारण करने के लिए अशक्य (दुर्जेय ) शत्रुओं के वक्षःस्थलों ( उरोभूमि ) के विदारणरूपी प्रशस्त कर्म वाला था । [जब सुलसा विवाह योग्य हुई तब विशेष उन्नतिशील राजा-अयोधन को यपि अपनो महारानी के हृदय की बात ज्ञात थी तो भी उसने सोचा कि-'यह स्त्री धन जिस किसी महाभाग्यशाली के भाग्य में भोगने के याग्य है, उसी का यह होना चाहिए । इस विषय में सब शरीरधारियों का देव ही शरण है और देव का १. 'हस्तिनाग' नामा कश्चिद्राजा तत्र पूर्वमभूत् तेन तुम्नगरं हस्तिनागपूरमित्यभवत् । * सः। २-३. खजितकर । ४. द्रव्य । ५. ज्ञातेवः ज्ञातेयं तेन वन्युत्वेनेत्यर्थः। ६. अतियिपिङ्गलायकोदरीत्पनौ। ११. स्थान । ८. पारहितः । ९. परिपूर्णमङ्गलरूप। १०. गुणा एवं गीर्वाणाचल: 'कस्तत्र रत्नशिखराय दि० ख०, गुणा एव गीर्वाणाः देवाः तेम्मः अचलः मेभः तन्त्र रत्नसानुः टि० च०। ११. उद्दलनायावदानं अद्भुतकर्म शुद्धकर्म वा तत्र उद्योग एव लागलं यस्य सः । १२. दत्ता । १३. शाला। १४. प्राभूतपूर्व । १५. लेसं। १६. तेन भूभुजा ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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