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________________ षष्ट आश्वास ૨૭૨ करेणीनाम इव सम्तुमिकाये काये स्वयशाधवमा व्याससमासक्रियया च तामवगम्योपगम्य च हास्तिनपुरं 'न सस्य निषेध निखिल निर्णामपालाय मध्यमलोकपालायामप्रवृत्ततन्त्रेण कारमात्रेणाध्याम्पितजगत्त्रयः “प्रसंख्यातनविध्वंसवावे तपः प्रभावे दुर्जनविनयतार्थममिनिविशन्ते' यतोशाः' इति च परामृश्य प्रविश्य च पुरं freeसूचितप्रचारोऽन्तःपुरं पद्ममहीपते राजधानीष्यश्वानां वा उपस्थत संज नरेश्वरात्परः प्रायेणास्ति गोपायिता । तत्कथं नाम तृणपात्रेयनपराध मतीनां यतीनामात्मन्युशुभलोक निवे कसमुपसर्ग सहसे इत्युक्तम् । 'भगवन् सत्यमेवैतत् । किं तु कतिचिद्दिनानि बलिरगराजा, नाहम्' इति प्रत्युक्तियुक्तस्थित पद्ममिलेन खलु परेषु प्रायेण फलोल्लासनशीलास्तपः प्रभवद्धिलीलाः' इति चावस्य शा लाजिरसंपुटकोट राषकाशः प्रदीपप्रकाश व संजातयामनाकृतिः सप्ततन्तुवसुमतीमनुसृत्य मधुरष्यमिः १४ तृतोयेन सवनेम १५ प्राध्ययनं व्यधात्। बलिलघरच्या नवन्धुरं वाक्प्रसरं सिन्धुर १ ४ निभूतकर्णो निर्वयं कोऽयं खलु १३ " ५ वेदवाचि विरिञ्च" י इस प्रकार वह समस्त मनुष्य क्षेत्र में फैल गया । एवं जैसे मकड़ी अपने जाले को अपने अधीन करती हुई उन्हें विस्तृत व संकुचित करती है वैसे हो प्रस्तुत ऋषि भी अपना शरीर विस्तृत व संकुचित करते हुए अपनी विक्रिया ऋद्धि का निश्चय कर हस्तिनागपुर में पहुंचे 1 'क्रोध से उत्पन्न हुए कार्य वाले हुँकारमात्र से तीन लोक को कम्पित करनेवाले मुनोश्वर निस्सन्देह ऐसे तप के प्रभाव होने पर भी, जो कि दुर्प्रानरूपी वन को विध्वंस करनेवाली दावानल अग्नि-सरीखा है, किन्तु वे समस्त पृथिवोवर्ती वर्ण व आश्रम में रहने वाली प्रजा के रक्षक राजा से कहे विना दुष्टों को दंड देने का उद्यम नहीं करते ।' ऐसा सोचकर बिष्णुकुमार मुनि अन्तःपुर में प्रविष्ट हुए । पुराने परिचित कञ्चुकि ने उनका प्रवेश सूचित किया । ara में विष्णु मुनि ने राजा से कहा--- 'पृथिवीपति पच ! जब निस्सन्देह राजधानियों में भी बन सरीखा परिणाम रखनेवाले तपस्वी मुनिसमूह का राजा को छोड़कर प्राय: कोई दूसरा रक्षक नहीं है तब तृणमात्र के प्रति अपराध करने की बुद्धि न रखनेवाले ऋषियों के शरीर पर किया हुआ उपसर्ग, जिसको उत्पत्ति दुष्ट लोक रूपी मलिन जल से हुई है, आप कैसे सहन करते हैं ? 1 राजा पद्म – भगवन् ! आपका कहना ठीक है किन्तु यहाँ कुछ दिनों के लिए यहाँ का राजा बलि है मैं राजा नहीं हूँ ।' तब विष्णुकुमार मुनि ने इस प्रकार के प्रत्युत्तर की युक्ति में राजा पद्म को अनादृत करके यह निश्चय किया - फि निस्सन्देह तपश्चर्या से उत्पन्न होनेवाली ऋद्धियों के चमत्कार प्रायः दूसरों पर किये गये छल द्वारा फलदायक होते हैं।' बाद में उन्होंने सराव संपुट के मध्यवर्ती अवकाश वाले दीपक के प्रकाश सरीखा वामन रूप धारण किया और यज्ञभूमि में जाकर मधुर ध्वनि पूर्वक ऊँचे स्वर से वेदाध्ययन शुरू किया । afa ने मेघ को नि-सी मनोज्ञ उस विस्तृत वेदवाणी को वैसी निश्चल श्रोत्रवाल होकर सुनी जैसे हाथो ध्वनि को निश्चल कर्ण युक्त होकर सुनता है । इससे उसका हृदय कौतूहल- युक्त हुआ । 'वेद्र के प्रवचन -विषय में ब्रह्मा-सरोवा उच्चारण करने में चतुर यह कौन है ?" १. लूला। २. विक्रियद्धिं । ३. पृथ्वी ४ कोषत्वाकार्येण । ५. ध्यान । ६. उद्यमं कुर्वन्ति । ७. प्रवेश: ॥ ८ सरागस्थानेष्वपि वनेष्य परिणामः स्यात् । ९. रक्षकः । १०. त्वं सहये । ११ जनगणम्य । १२. शालाजिर शब्देन कपाल' इति टि० ( ० ) । 'शाकाजिरं शरावं' इति पञ्जिकाकारः । धारावो वर्धमानकः इत्यमरः । १३. यज्ञभूमि । १४. १५. उदात्तस्वरेण । १६. गजवत् । १७. निश्चल । १८ श्रुत्वा । १९. प्रवचनविषये । २०. ब्रह्म
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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