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________________ ८७ चतुर्थ आश्वासः देवमनुष्यैरय राक्षसर्या निसर्गतो गूढत्तरप्रचारा । वृक्तया जातुमियतया वा न शक्यते स्त्रोजनचित्तवृत्तिः ।। १९२ ।। हैव पात्स्यायनगोत्रज पुत्री भूगोः काञ्चनिकेतिनानी। पति च पुत्रं च विटं च हत्वा भन्नां तु साधं बहनं विवश ॥ १९ ॥ अयवतवप्यस्यामसंभाव्यम् । राषिशो लोकः प्रापेणान्धष्टिरिख परामर्शमकृत्वा शभायाशुभाय वा कर्मणे तोलयत्यारमानम् । इयं पुनः प्रकृस्यैव विषप्ततिरिव दुष्टस्वभावा, मफरदं व दत्राशीलिगी, कणिसुतकवेव , बहुकूटकपटबेष्टिता, फुमारविद्येदानेककुन्जक बिनो, खड्गीय जिह्वयापि स्पृशान्ती वारयत्यङ्गानि । छलयति व नियतिरिय बुबघा वृहस्पतिमपि पुगषम् । मदीयं तु विलसिस स्वहस्ताक्षराकर्षणमिव मे संगातम् । अस्याश्च बचिल्वसंयोगप्तमम् । कालच सवस्येति में नरं कालकाक्षिणम् । दुर्लभः स पुनः काश्मस्तस्य कर्म चिकीर्णतः ।। १९४॥ एतदेवाधशास्त्रस्य नित्पमध्ययने फलम् । यत्परानभिसंषसे नाभिसंघीयते परः ।। १९५ ॥ इति मां च नीतिमसौ बहुधा पठति । स्वभावसुभगाशोऽपि च शास्त्रोपदेशः स्त्रीषु शस्त्रीष्विव पयोलवः परं परोपघाताचैव प्रभर्याप्त फिच। स्वभाव से विशेष गहन होती है, इन्द्र-आदि देवताओं से, पुरषों से, अथवा राक्षसों से इस रूप से अथवा इतनी रूप से जानने के लिए शक्य नहीं होतो' १९२६॥ उदाहरणार्थ-इसी भरतक्षेत्र की उज्जयिनी नमरी में वात्स्यायन ऋषि के कुल में उत्पन्न हुए 'भृगु' नामक ब्राह्मण को 'काञ्चनका' नामवाली पुत्री ने पति, पुत्र व विद को मारकर पति के साथ अग्नि में प्रवेश किया ।।११३।। अथवा यह बात भी इस महादेवी ( अमुतमति) में असम्भव है। अर्थात्--यह मरेगी यह कदापि सम्भव नहीं, प्रत्युत्त मुझे मारेगी। क्योंकि निश्चय से विना बिचारे उतावलो में आकर कार्य करनेवाला जन-समूह अन्धे की लकड़ो-सरीखा होता है। अर्थात्-जैसे अन्धे पुरुष की लकड़ी अविचार पूर्वक यहां-वहाँ पड़ती है वैसे ही लोक भी विना बिचारे कार्य करता है, इसलिए लोक तो शुभ अथवा अशुभ कर्म करने के लिए अपनी आत्मा को संशय में डालता है। अर्थात्-विना विचारे उतावली पूर्वक कार्य करनेवाला लोक मरता है, परन्तु यह तो कदापि नहीं मरेंगी। फिर यह महादेवी सो प्रकृति से विषजाति-सरीखी दुष्ट स्वभाववाली है। यह मगर की दाढ-सरीखी वक्र स्वभाव-धुक्त एवं मूलदेव के चरित्रसरीखी बहुत से कूट कपदों से वेष्टित है तथा धूर्तशास्त्र-रचगिता की विद्या-सरीखी यहत से मायाचारों को जाननेवाली है । जैसे तलवार जिह्वा से छूती हुई अङ्ग विदीर्ण करती है वैसे यह भी मुझे स्पर्श करती हुई मेरे अङ्ग विदीर्ण करती है। यह देधी बुद्धि से बृहस्पति-सरीखे विद्वान पुरुप को भी वैसा धोखा देती है जैसे नियति (भाग्य) वृहस्पत्ति-सरीखे विद्वान् पुरुष को धोखा देतो है। मेरा कार्य तो अपने हाथ से अङ्गारखींचने-सरीखा ( दु:खदायक ) हुमा । एवं इसका कार्य खल्वविल्व के संयोग मरीखा घातक हुआ । अर्थात्-जिस तरह गब्जे पुरुष के मस्तक पर वेलफल का गिरना घातक होता है उसी तरह इसके कार्य भी मेरे घातक हैं। अवसर एफ बार मिलता है। अवसर चाहनेवाले पुरुष को व अवसर के अनुकूल कार्य करने के इच्छुक पुरुष को अवसर दर्लम होता है । अभिप्राय यह है कि यह जानती है कि यशोधर की मृत्यु करने का यही अवसर है, वह वाद में नहीं मिलंगा ॥१९४11 नीतिशास्त्र के सदा काल पढ़ने का यही फल है कि नीतिवेत्ता मानव शत्रुओं को धोखा देता है और स्वयं शत्रुओं से धोखा नहीं खाता ॥१९५।। यह महादेवो मेरे सामने ऐसी नीति को अनेक बार १. मतिपायालंकारः । २. आक्षेपार्णकारः । ३. जात्यलंकारः। ४, जातिरलंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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