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________________ ४८४ गुरुजन मेरे विद्यासागर । ललितकला के सरस सुधाकर ।। पहले शास्त्री 'अम्बावत' । जो थे दर्शनशास्त्र महत ॥१४॥ दूजे श्रीमद्गुरु 'गणेश' थे, न्यायाचार्य अरु तीर्थ-समान । वर्णी बापू थे अति दार्शनिक, सौम्यप्रकृति वा सन्त महान ।।१५।। दोहा सरस्वती मेरी प्रिया, उनसे हुई सन्तान । एक पुत्र पुत्री-उभय, जो हैं बहु गुणखान ||१६|| पत्नी मम दुर्दैव ने, सद्यः लोनी छीन है वंशवेलि बढ़ावने, सुत 'मनहर 'परवीन ||१५|| मेरी शिष्य परम्परा, भी है अति विद्वान । जिसका अति संक्षेप से. अब हम करें बखान ।।१८।। पहले 'महेन्द्रकुमार' हैं, दूजे 'पवनकुमार' । 'मनरजन तीजे लसे, चौथे 'कनककुमार' ॥१९॥ चौपाई वि० संवत् बीस सै अठ वीस. ज्येष्ठ शुक्ल तेरस दिन ईश। पूर्ण नका. साहु, सुमस्या का नाम फल हुआ |२०|| दोहा अल्पवुद्धि परमादल, भूलचूक जो होय | सुबी सुधार पड़ी सदा, जाते सम्मान होय ॥२१॥ सुन्दरलाल शास्त्री प्राचीनन्याय-काव्यतीर्थ-सम्पादक
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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