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________________ १५२ मशस्तिलकथम्पूकाव्ये तरुणीवरणास्फालनसंक्रान्ता प्रक्कद्र कोत्रे कम् । विकिर्शद्भरिव पलाशंरशोक मालोकयत कान्तम् ॥५९॥ सन्मूलनिवासवन्तं सुदत्त भगवन्तं च स्वगतम् 'अहो कथमनेम भगवता परलोकलादनकरावकाशः कमनीयतां नीतः शरीरसंभवाभिनिवेशः क्लेशः । यतः । कार्य क्षुत्प्रभवं फबन मशनं शीतोष्णयोः पात्रता पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मह्यास्तले केवले । एतान्येव गृहे वहन्त्यवति यान्युन्नत कानने । दोषा एवं गुणो भवन्ति मुनिभियोग्ये पदे योजिताः ||६० ॥ तदसमत्र विकल्पपरम्परा । संभाषामहे तवदेनं संयमिनम् । न खलु रत्नाकर कल्लोला इव प्रायेण भवन्ति मुनयः शून्यशीला: । ततः समुपसद्य निषद्य च तत्र विवावाष्येषणोत्कर्ष कलुष धिषणः किलंषमाह मूरिः- 'अहो विवेकशून्यानामात्मातर्याश्रयाः क्रियाः । न ह्यङ्गो तो मुस्किन् णां महकुरङ्गवत् || ६१ ॥ यस्मादेष खलु अकर्ता निर्गुणः शुद्धो नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अमूर्तश्चेतनो भोक्ता पुमान्कपिलशासने ॥ ६२॥ हैं एवं जिनके प्रान्तभाग वनदेवी के कर-कमलों-जैसे कोमल हैं। अतः जो ऐसे मालूम पड़ते हैं-मानों वनलक्ष्मियों की ओष्टदलसंबंधी लाली को श्रेणी से ही प्रशंसनीय हुए हैं एवं जो ऐसे प्रतीत होते हैं- मानों-युवती स्त्रियों के पादताडन से संक्रमण को प्राप्त हुए तरल लाक्षारस की प्रचुरता को ही फेंक रहे हे ।।५८-५९।। अहो आश्चर्य है कि कैसे इस पूज्य ने शरीरजनित अभिप्रायवाला व स्वर्गलोक के प्रतीक अवसरवाला शारीरिक कष्ट प्रशंसनीयता में पाप्त किया है। उत्पन्न वाली शारीरिक दुर्बलता, कुत्सित या स्वल्प मत वाला भोजन, शोत व उष्ण के सहन करने की योग्यता, केशों में कठोरता एवं केवल पृथिवी तल पर शयन करना. ये ही वस्तुएँ गृह पर अवनति को धारण करती हैं, अर्थात् मानव की दखिता की प्रतीक हैं परन्तु वन में उन्नति को धारण करती है, अर्थात्-वन में उक्त कष्टों को सहन करनेवाले साधु की महत्ता सूचित करती है, क्योंकि साधु पुरुषों द्वारा योग्य स्थान (धर्म ध्यानादि) में योजना किये हुए दोष ही गुण हो जाते हैं || ६०|| अतः इस विषय में सन्देह समूह करने से पर्याप्त है। इसी चरित्रधारक साधु से हमलोग वार्तालाप करें। निस्सन्देह मुनिलोग प्राय: करके समुद्रतरङ्गों-सरीखे शून्य स्वभाववाले ( निरर्थक प्रयास फरनेवाले ) नहीं होते ।' फिर श्री सुदत्ताचार्य के समीप जाकर व स्थित होकर उनमें से सूरि ( शकुन सर्वज्ञ नामक विष्णुभक्त विद्वान ) ने, जो कि विवाद संबंधी अध्येषण ( सत्कारपूर्वक व्यापार ) की वृद्धि से कलुषित बुद्धिवाला है, इस प्रकार कहा - 'अहो ! ज्ञान होन पुरुषों की क्रियाएं ( कर्तव्य ) आत्मा को विपत्तियों का सङ्गम करानेवाली होती हैं, क्योंकि निश्चय से जैसे मृगतृष्णा में वर्तमान मृगों को शारीरिक कष्टों ( निरर्थक दौड़ने ) से सुख प्राप्त नहीं होता ( उनकी प्यास पान्त नहीं होती) वैसे ही विवेक शून्य पुरुषों को भी शारीरिक कष्टों से मुक्ति प्राप्त नहीं होती ।। ६१ ।। क्योंकि निश्चय से यह आत्मा निम्नप्रकार है- सांख्यदर्शन में यह आत्मा अकर्ता (पुण्य-पाप कर्मों का बन्ध न करने वाला ), निर्गुण (सत्व, रज व तम आदि प्रकृति के गुणों से रहित), शुद्ध (कमल पत्र सरीखी निर्लेप ), नित्य ( सकलकालकलाव्यापी - शाश्वत रहने वाली अविनाशी ), सर्वगत (व्यापक - समस्त मूर्तिमान पदार्थों के साथ संयोग करने वाला ), निष्क्रिय ( एक देश से दूसरे देश को गमन करना रूप किया से शून्य ), अमूर्तिक ( प्रकृति के रूप, रस, गन्ध च स्पर्श तथा शब्द गुणों से शून्य ), वेतन ( शान्त चैतन्य-युक्त ) और भोक्ता (पुण्य-पाप कर्मों के सुख दुःख रूप फलों का भोगने वाला है ।। ६२ ॥ * उत्प्रेक्षालंकारः । १. सत्कारपूर्वी व्यापारोऽयेषणः सटिप्पण प्रति से संकलित- २. उपमालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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