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( १३ )
१. छन्दशास्त्र, २. शब्द निघण्टु, ३. अलङ्कार, ४. संगीत आदि कलाएँ, ५. सिद्धान्त, ६. हस्तरेखा विज्ञान, ७. ज्योतिषशास्त्र, ८. वैद्यक, ९ वेद १०. वादविवाद ( खण्डन भण्डन ), ११. नृत्यशास्त्र, १२. कामशास्त्र या मनोविज्ञान, १३. गजविद्या १४ शस्त्रविद्या, १५. दर्शनशास्त्र, १६ पौराणिक व ऐतिहासिक कथानक, १७. राजनीति, १८. शकुनशास्त्र, १९. वनस्पतिशास्त्र, २०. पुण जगत में वर्तमान श्रेय ( शाश्वत कल्याण ) मोर २३. वक्तृत्व कला की व्युत्पत्ति ॥ २ ॥
अहं या काव्यफर्ता वा सो वावेवेश्वरावि । विषुद्रनातिरेकेण को नामान्यस्वमपः ।। ३ ।। कवेरगि विदम्पोऽहमेतत्सूक्ति समर्थन । यत्सौभाग्यविधी स्त्रोणां पतिवन्न पिता प्रभुः ॥ ४ ॥ प्रयोगास्तमयं छन्दस्वप्रसिद्धिमयं तमः । तत्प्रयोगोदयार्को हि निरस्यत्य समंजसम् ।। ५ ।।
मैं ( श्रीदेव ) और यशस्तिलककार श्रीमत्सोमदेवसूरि ये दोनों ही लोक में काव्यकला के ईश्वर (स्वामी) हैं; क्योंकि सूर्य व चन्द्र को छोड़कर दूसरा कौन अन्यकार- विध्वंसक हो सकता है ? अपि तु कोई नहीं || ३ || 'यशस्तिलक' की सूक्तियों के समर्थन के विषय में तो मैं ( श्रीदेव ) यशस्तिलककार सोमदेवसूरि से भी विशिष्ट विद्वान हैं; क्योंकि स्त्रियों की सौभाग्य-विधि में जैसा पति समर्थ होता है वैसा पिता नहीं होता || ४ || यशस्तिलक के अप्रयुक्त चदनिघण्टु का व्यवहार में प्रयोग के अस्त हो जाने रूपी अन्धकार को और द्विपदी आदि अप्रयुक्त छन्दशास्त्र विषयक अप्रसिद्धिरूप अन्धकार को यह हमारा प्रस्तुत ग्रन्थ ( यशस्तिकपा), जो कि उनका प्रयोगोत्पादक रूपो सूर्य सरीखा है, निश्चय से नष्ट करेगा ।। ५ ।।
व्यापकायान्धः स्वदोषेण यथा सवलन् । स्वयमक्षस्तथा लोकः प्रयोक्तारं विनिन्दति ॥ ६ ॥ नाप्रमुक्तं प्रयुज्जीवेत्येतन्मार्गानुसारिभिः । निषदुशब्दशास्त्रेभ्यो नूनं दत्तो जलाञ्जलिः ॥ ७ ॥ जहे पेलव योन्याद्यान् शब्दांस्तत्र प्रयुञ्जनं । नाप्रयुक्तं प्रयुञ्जीतेत्येषः येषां नयो हृदि ॥ ८ ॥ नाप्रयुक्तं प्रयोक्तव्यं प्रयुक्तं वा प्रयुज्यते । प्रत्येकान्ततस्ततो नास्ति वागर्थौचित्यवेदिनाम् ॥ ९ ॥ छात्रा दशपाती यायामपूर्वा समभूदिह । कर्वागर्थ सन्रज्ञाढर्णकशिती तथा ॥ १० ॥
जिसप्रकार लोक में अन्धा पुरुष अपने दोष से स्खलन करता हुआ अपने खींचनेवाले पर कुपित होता है उसीप्रकार लोक भी स्वयं अज्ञ ( शब्दों के सही अर्थ से अनभिज्ञ ) है, इसलिए शब्दों के प्रयोक्ता कवि की निन्दा करता है ॥ ६ ॥ 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए' इस प्रकार के भार्ग का अनुसरण करनेवालों ने तो निस्सन्देह निघण्टु शब्दशास्त्रों के लिए जलाञ्जलि दे दी, अर्थात् उन्हें पानी में वहा दिया ॥ ७ ॥ जिनको ऐसी मान्यता है कि 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए' उनके यहाँ जले, पेलव ( पेलवं विरलं तनु इत्यमरः - छितरा ) व योनि आदि शब्दों का प्रयोग किस प्रकार संघटित होगा ? ॥ ८ ॥ इसलिए शब्द व अर्थ के वेत्ता विद्वानों का 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए अथवा 'प्रयुक्त शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। यह एकान्त सिद्धान्त नहीं है ॥ ९ ॥ प्रस्तुत शास्त्र (यशस्तिलक-पञ्जिका) में १३०० श्लोक परिमाण रचा हुआ अभूतपूर्वं व प्रमुख शब्दनिघण्टु शब्द व अर्थ के सर्वज्ञ श्रीदेव कवि से उत्पन्न हुआ है ॥ १० ॥
इसके अन्त में निम्न प्रकार उल्लिखित है
इति श्रीदेव विरचितायां यशस्तिलक-पञ्जिकायां अष्टम आश्वासः । इति यशस्तिलक टिप्पणीकं समाप्तं ।
शुभं भवतु ।
इस प्रति का भी सांकेतिक नाम 'क' है ।