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________________ १३४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये यस्य च जनन्यः परकलत्राण्येव, बन्धुषर्गः समाणितलोक एव, कुटुम्बकं सप्तसमुदावधि अनुभव, जोषितं साल. प्रतिपालनमेव, महाव्यसनं परोपकारनिघ्नतंब, यताधरणं क्षितिरक्षणमेव, योग्योद्योगः प्रभाकार्यामुशासनमेव, दक्षिणादसावं जगाचवहारज्यवस्थापनमेय; अवभूषस्नान परह च हितवृत्तिप्रवृत्तिषु स्वातन्त्र्यमेध, वीरत्वमरिषवर्गविजय एव, असि. धारानतमन्यायखण्डनमेष, ऐश्वयंमाशानुल्लङ्घनमेव । पस्य वासंतोषः श्रुतेषु, तर्पः सापुरुषसंग्रहेषु, मूकमावः स्वकीयगुणस्तयनेषु, बधिरत्वं बुर्जनोपदेशेषु, वर्शनपरावृत्ति रनर्थसंगमेषु, कामः पुण्यार्जनेषु. अामा परोपतापेषु, विद्वेषो व्यसनेषु, असंतृप्तिः सुभाषितमवणेषु, आसक्तिः पुनः भगोष्ठीषु । यस्य च परिमितत्वं वाघि, कालहरणं कालासु. आशादर्शनं विग्विजययात्रायाम, अषणगतत्वं पूर्वपुरुषचरितेष, अवधारणमात्मसुखानाम्, अनवसरः कलिकालविलम्भितस्थ, महासास्विकं सकलजगदम्युचरणेष, ऐश्वर्य विश्वम्भरतायाम, * पुनरमीषा पन्नानि तस्य यदान्यातायां प्रत्युपकृतिषु माग्यजनसंभावनायां स्वच्छन्दवृत्तिषु च विषयभाषमाणग्मुः । लषित वस्तु ) देने के निमित्त है। जिसका अद्भुत कम संबंधी उद्यम विधान मुनियों के उपसर्ग-निवारणार्थ है। जिसका जयकुमार-आदि वीरों सरीखा पराक्रम साधकों (विद्या देवता को वश करनेवाले महात्माओं के भय को नष्ट करने के लिए है और जिसका प्रसाद ( प्रसन्नता ) भगवान ऋषभदेव से धारण किये हुए धर्म के निर्वानिमित्त है। दूसरों की स्त्रिया ही जिसकी माताएं हैं। सेवकगण हो जिसका भ्रातृवर्ग है । सातसमुन पर्यन्त पृथिवी पर स्थित हुआ लोक हो जिसका परिवार वर्ग है । सत्यधर्म का प्रतिपालन ही जिसका जीवन है। परोपकार करने की अधीनता हो जिसका महाव्यसन है | पृथिवी का परिपालन हो जिसका व्रताचरण है। प्रजाजनों के कर्तव्य की शिक्षा देना ही जिसका उचित उद्यम है। पृथिवी महल पर स्थित हुए तीन लोक की सदाचार प्रवृत्ति को निश्चल करना ही जिसका दानचातुर्य है । परलोक व इस लोक में सुख उत्पन्न करनेवाले पुण्य कर्मों को प्रवृत्तियों में स्वाधीनता ही जिसका प्रशान्त स्नान है। अरिषड्वर्गों ( काम, क्रोधादि छह शत्रु-समूहों पर विजयश्री प्राप्त करना ही जिसकी वीरता है। अन्याय का खण्डन करना हो जिसका असिधाराव्रत ( तलवार को बार सरीखा कठोर नियम ) है एवं आदेश का प्रतिपालन ही जिसका ऐश्वर्य है। जिसे तृष्णा शास्त्रों के अभ्यास में है व लोभ महापुरुषों के स्वीकार में है। और जो अपने गुणों की प्रशांसा करने में मौन रखता है। जो चुगलखोरों के वचनों के श्रवण करने में बहिरा है। अलाभ-संगतियों में जो नेत्र बन्द करता है। जो पुण्य-संचयों में अभिलाषा करता है। जिसका क्रोष परोपतापों के अवसर पर होता है। अर्थात्-दूसरों से सन्ताप दिये जानेपर जो क्षमा नहीं करता है। जिसे अप्नोति जुआ खेलना-आदि सातव्यसनों में है एवं असन्तोष सुभाषितों के श्रवण में है तथा आसक्ति विद्वानों की मोष्ठी में है। जो वचन में परिमित ( अल्पभाषी ) है किन्तु दान करने में परिमित ( थोड़ा देनेवाला ) नहीं है । जो समय-यापन लेखन व पठनआदि कलाओं में करता है परन्तु दान करने में समय-यापन ( विलम्ब ) नहीं करता, अर्थात तत्काल देता है। जिसका आशादर्शन ( दिशाओं का देखना ) दिग्विजय के लिए प्रस्थान करने में है परन्तु दान में जो आशादर्शन (याचकों की आकान्सा का यापन) नहीं करता, (तत्काल देता है) । जो पुराणपुरुषों की कथाओं के श्रवण में श्रुतिदान (च्यान पूर्वक सुनना ) करता है परन्तु प्रजाजनों की प्रार्थनाओं में श्रुतिदान-श्रवण-खण्डन (नहीं सुनना) नहीं करता। अर्थात् उनकी प्रार्थनाएं अवश्य सुनता है। जो अपने सुखों का अनादर करता है परन्तु याचकों का अवधारण---अनादर नहीं करता। जिसको दुष्ट कलिकाल के प्रसार का अनवसर (अप्रस्ताव है, परन्तु जिसे याचकजनों के लिए अनवसर नहीं है। अर्थात्-जिसे दान करने का सदा अवसर है। जो समस्त लोक की रक्षा करने में प्रसन्न है एवं जिसका ऐश्वर्य सकल लोक के भरण-पोषण में है। इनके
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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