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श्रियं कुवलयानंदप्रसादितमहोदयः इत्यादि मु० प्रतिवत् है ।
अन्त में-वर्ण: पदं वाक्यविधिः समासो इत्यादि मु० प्रतिवन् । ग्रन्थ-संख्या ८००० शुभं भूयात् । श्रेयोऽस्तु ।
इसका अन्तिम लेख-अयास्मिन् शुभसंवत्सरे विक्रमादित्यसमयात् संवत् १९१० का प्रवर्तमाने फाल्गुनमासे कृष्णपक्षे तियो षष्ठ्यां ६ शनिवासरे मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये अजमेरगच्छे श्रीमदाचार्यवर आचार्यजी श्री श्री श्री थी १०८ श्री गुणचन्द्रजो तत्प आचार्यजी श्री श्री कल्याणकोतिजी तरपट्टे आचार्यजी श्री श्री विशालकीतिजी सत्प? आचार्यजी श्री श्री १०८ भानुकीतिजी तत् शिष्य पं० भागचन्द्रजी, गोवर्धनदासजी, हेमराजजी, वेणीरामजी, लक्ष्मोचन्दजी, लालचन्दजी, उदयरामजी मनसारामजी, मार्जिका विमल श्री, लक्ष्मीति, हरवाई, बखती राजा', राही एतेषां मध्ये पंडित जी श्री भागचन्दजी, तत्शिष्य पं० जी श्री दीपचन्दजी तशिष्य पंडितोत्तम पंडितजी श्री श्री चिमनरामजी तत्पौत्र शिष्य महाचन्द्रेणेदं यशस्तिलक' नाम महाकाव्यं लिपिकृतं सीकरनगरे जैनमन्दिरे श्री शान्तिनाथ चैत्यालये शेखावत-महाराव राजा श्री भैरवसिंह जो राज्ये स्वात्मार्थ लिपिकृतं शुभं भूयात् । इसका सांकेतिक नाम 'घ' है।
५. 'च' प्रति का परिमय-यह प्रति बड़नगर के श्री दि० जैन मन्दिर मोट श्रो० सेठ मलूकचन्द जो होराचन्द जो वाले मन्दिर की है। प्रस्तुत मन्दिर के अध्यक्ष श्री. धम० सेठ मिश्रीलाल जी राजमल जी दोग्या सरीफ बड़नगर के अनुग्रह एवं सोजन्य से प्राप्त हुई थी। इसमें १२४५२ इञ्च की साईज के २८३ पत्र हैं। इसको लिपि पौष कृ० द्वादशो रविवार वि० सं० १८८० में श्री० पं० विरधीचन्द जी ने की थी। प्रति को स्थिति अच्छी है । यह शुद्ध बसटिप्पण है। इसके शुरु में मुद्रित प्रति की भाँति श्लोक हैं और अन्त में निम्नप्रकार लेख है
वि० सं० १८८० वर्षे पौषमासे कृष्णपक्षे द्वादश्यां तिथी आदित्यवासरे श्री मूलसंधे नंद्याम्नाये बलाकारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये आचार्य श्री श्री शुभचन्द्रदेवाः तत्संघाप्टके पंडितजी श्री श्री नौनिधिरामजी तस्शिष्य पं० श्री नवलरामजी तशिष्य पं० विरघोचन्द्रजी तेनेदं यशस्तिलकचम्पू' नाम शास्त्र लिखितं स्वबाचना।
श्री शुभं भवतु कल्याणमस्तु । इसका सांकेतिक नाम 'च' है।