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________________ ३८२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये द्वारतया च मनाङमुक्त पूर्वावश्यान्तरमरूपरसगन्ध शन्दस्पर्श मशेष भुषन शिरः शेष रायमाणा 'विश्वंभरमुपशान्तसकलसंसारबस परमात्मानमुपेयुषो गुरुणापि प्रतिपद्मगुरुभावस्य रत्मत्रयपुरःसरस्य भगवतः सिद्धपरमेष्ठिनोऽष्टतमिष्ट करोमीति स्वाहा। अपि च । प्रत्नकर्ममा नकर्मविजितान् । यत्नतः संस्तुवे सिद्धान्त्र पमहीयसः ॥ २८ ॥ 5 उ पुण्यस्य "विवोधिसीआर रोपात समस्तं तिह्य रहस्यसारस्य "अध्ययनाध्यापन विनिपोतियनियमोपनयनादिक्रियाकाण्डनिःस्नास वित्तस्य चातुर्वर्ण्यसंघप्रवर्धनधुरंधरस्य द्विविधात्मक विबोधनवि हिण्यपेक्षासंयन्त्रस्य सकलवर्णाश्रमसमय समाचार विधा रोचितवचनप्रपचमरौचविदलितनिखिल जनतारविन्दिनी मिध्यात्वमहामोहान्धकारपटलस्य ज्ञानतयः प्रभावप्रकाशित जिनशासनस्य शिध्वप्रशिष्यसंपदाशेषमि भुवनमुद्धर्तुं सुरातस्य भगवतो समयपुरःसरस्याचार्य परमेष्ठिनोऽष्टतयमिष्टि करोमीति स्वाहा । अपि च । विचार्य सर्वमतिमाचार्यकमुपेयुषः । आचार्यवर्यात चमि संचार्य हृदाम्बुजे ॥ २९ ॥ से युक्त है। जो बाधा और पर के आकाररूप संक्रमण से रहित है। विशेष विशुद्ध स्वभाव के कारण और समस्त शारीरिक द्वारों के हट जाने से जो पूर्व अवस्था से कुछ छुटकारा पा चुका है, अर्थात् जो पूर्व अवस्था से कुछ ऊँन है। जिसमें रूप, रस, गन्ध, शब्द व स्पर्श नहीं हैं ब जो समस्त लोक के शिर पर मुकुट के समान आचरण करनेवाले स्थान से जगत् का पालन करनेवाला है एवं जिसमें समस्त सांसारिक अज्ञानादि दोषों का विस्तार नष्ट हो चुका है। जो (मिद्ध परमेष्ठो } तीर्थंकर परमदेव द्वारा भी गुरु माने गये हैं और जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकुचारित्र रूप रत्नत्रय से अलंकृत हैं । पुराने कर्मो के बन्धन से छुटे हुए और नवीन कर्मों से रहित तथा रत्नत्रय से महान उन सिद्धों का में यत्नपूर्वक स्तवन करता हूँ ॥ २८ ॥ आचार्य-पूजा में विशेष पूज्य ऐसे भगवान् आचार्य परमेष्ठी की आठ द्रव्यों से पूजा करता है, जिन्होंने जाति व आचरण से शुद्ध कुल व सदाचार से विभूषित हुई गुरु-परम्परा द्वारा समस्त आगम के गोष्यतस्व का सार ग्रहण किया है। जिनका चित्त स्वयं शास्त्रों का पठन-पाठन, अधिकार, विनय, नियम ( व्रत व तप का पालन ) व दीक्षा व तारोपण विधि आदि क्रिया काण्डों से पवित्र है । जो चार वर्ण ऋषि, यति, मुनि व अनगार ) के साधु-संघ की वृद्धि का भार वहन करनेवाले हैं। जिन्होंने मुनि व श्रावक धर्म के ज्ञापन में इस लोक संबंधी सुख की अपेक्षा का संबंध त्याग दिया है। जिन्होंने समस्त वर्णों व आश्रम को आगमानुकूल क्रियापद्धति के विचार के योग्य वचन-समूहरूपी किरणों द्वारा समस्त जनतापो कमलिनी का मिथ्याल व विशिष्ट अज्ञानरूप अन्धकार-पटल नष्ट कर दिया है। जिन्होंने ज्ञान व तप के प्रभाव से जिन शासन को उद्दीपित किया है और जो अपनी शिष्य-प्रशिष्य सम्पत्ति द्वारा समस्त लोक के उद्धार करने में प्रयत्नशील-से रहते हैं एवं जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सग्यकूचारित्ररूप रत्नत्रय से अलंकृत है । मैं समस्त आगम को विचार करके आचार्यपद प्राप्त करनेवाले पूज्य आचार्यों को अपने हृदयकमल में स्थापित करके उनकी पूजा करता हूँ || २५ || १. स्थान । २. तीर्थंकरपरमदेवेन 'नमः सिचेभ्यः' इति वचनात् । ३. पुराणं १४, न । ५. जात्याचरणशुद्धं । ६. स्वयं पठन । ७. पाटन । ८. अधिकार । ९. दोक्षावतारीपणादिविधि । १०. पवित्र ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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