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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तस्मावि सुभाषितधमत्रावसरवत् । स्वयं रुमं करोग्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ।। १०७।। नमस्यामो देवान्ननु हतविपस्तेऽपि वशगाः विधियन्याः सोऽपि प्रतिनियतकान्तफलदः । फलं कर्मायत्तं यदि किममरः किं च विधिना नमः सस्कर्मभ्यः प्रभवति न येन्यो विधिरपि ॥१०॥ सोऽहं तवेव पात्रं तान्येतानि च गृहाणि वासृणाम् । इति निस्थं विदुषोऽपि च दुराग्रहः कोऽस्य नराम्ये ।।१०९॥ संतानो न मिरवये विसशे सादृश्यमेतत्र हि प्रत्याससिहते कुत: समुदयः का वासना स्थिरे । तस्वं बाधि समस्तमानरहिते ताथागते सांप्रत धर्माधर्मनिबन्धनो विधिरयं कोतस्कूलो वर्तसाम् ॥११॥ (दोष) आती है कि जैसे आज्ञाकारी सेवकों में जो चेष्टा देखी गई है, वह आपके जगत्स्रष्टा ईश्वर में हो । अभिप्राय यह है कि फिर तो आपका माना हुआ स्रष्टा वृथा हो है, क्योंकि वह तो सरका दास ही हुआ ॥१०६|| अतः निम्न प्रकार ये दो सुभाषित अवसर वाले हैं यह आत्मा ( जीव ) स्वयं पुण्य-पाप कर्मों का बन्ध करती है और स्वयं ही उनके सुख-दुःख रूप फल भोगती है एवं स्वयं ही संसार में भ्रमण करती है तथा स्वयं ही संसार से छटकारा पाकर मुक्ति रूपी लक्ष्मो प्राप्त कर लेती है॥ १०७॥ किन्हीं विद्वानों ने कहा है. फि हम देवों को नमस्कार करेंगे परन्तु निस्सन्देह वे भी तो दुष्ट विधि ( भाग्य ) के अधीन है [ अतः देवों को छोड़कर ] हमसे विधि ( भाग्य ) हो नमस्कार-योग्य है परन्तु वह भी प्रतिनियत ( निश्चित ) पुण्य-पाप कर्मों के अनुसार सुख दुःख रूप फल देने वाला है। (विधि भी कर्माधीन है। और यदि फल कर्माधीन है तो देव. ताओं और विधि से क्या प्रयोजन है ? अतः उन पुष्प कर्मों कों हो नमस्कार हो, जिनके लिए विधि भो समर्थ नहीं है। मीर-जिन ग्य-कों को सुख रूप फल देन में विधि भी नहीं रोक सकता ।।१०८ ।। अब ठकशास्त्र के वेत्ता बुद्धधर्मानुयायो सुगतकोति विद्वान् द्वारा निरूपित बौद्ध दर्शन का निराकरण करते हैं-वही मैं है' 'वही (पूर्वदष्ट ) पात्र है' 'वे ही दाताओं के गृह हैं। इस प्रकार के सदा ज्ञानबाले बौद्ध को आत्मा की शून्यता में कौन सा दुगनह है ? अपितु नहीं होना चाहिए ॥ १०९॥ [ र्याद बुद्ध की यह मान्यता है कि आत्मद्रव्य नष्ट हो जाती है परन्तु जैसे बहुत से वस्त्रों के मध्य में खाली हुई कस्तूरी-आदि । सुगंधि पदार्थ ) यद्यपि नष्ट हो जाती है, परन्तु वस्त्रों में उसकी संतति या वासना बनी रहती है वैसे ही क्षणिक पात्मा की भो संतति या वासना आदि बनी रहेगी, जिससे उसे उक्त प्रकार का ज्ञान होने में कोई बाधा नहीं है, उसका निराकरण करते हैं-] आत्मद्रव्य को अन्वय-शून्य मानने पर अर्थात्-पूर्व व पर पर्यायों में व्यापक रूप से रहने वाले मात्मद्रव्य संबंधी अन्वय के विना सर्वथा क्षणिक आत्मा को स्वीकार करने में, सन्तान' ( संतति ) नहीं बन सकती | भावार्थ- जैसे सर्वथा नष्ट हुए मयूर से केकावाणी (मयूरध्वनि) नहीं निकल सकती वैसे ही अन्वय-शून्य ( सर्वथा नष्ट हुई ) आत्मा में सन्तान नहीं बन सकती और क्षण-क्षण में अनोखो क्षणिक आत्मा को स्वीकार करने से सादृश्य भी घटित नहीं होता। एवं आत्मद्रव्य को निरन्वय विनाश चाली व क्षणदिनश्वर मानने से सजातीम उत्पत्ति भी केसे बन सकती है ? यदि कहोगे कि इन्द्रियादिक की वासना बनी रहेगी तो आत्मा को क्षण-विनश्वर मानने से वासना भी घटित नहीं होती; अतः तुझ बोद्ध के यहाँ, जिसके तारिबफ बचन समस्त प्रमाणों { प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाणों द्वारा बाधित हैं, धर्म (दान-पुण्यादि) व अधर्म (हिसादि) निमित्तक विधान कैसे घटित होंगे? अपितु नहीं घटित हो सकते । अर्थात् आत्मद्रव्य को सत्रंथा क्षणिक मानने से दान गुण्यादि कर्ता के सर्वथा नष्ट हो जाने से उसका फल ( स्वर्ग ) दूसरा भोगेगा ! इसी प्रकार हिमक के सर्वथा नष्ट हो जाने से राजदण्डादि लोकिक कष्ट व नरकमति संबंधो भीषणतम यातनाएं दूसरे को भोगनो होगी॥ ११ ॥ १. सन्तानोऽपत्यगोत्रयोः संततो देववृक्षायोः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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