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________________ यो। वे इस बात के लिए चिन्तित दिखाई देते हैं कि वाण के किये हुए उदात्त वर्णनों के सदृश कोई वर्णन उनके काव्य में छूटा न रह जाय । सेना की दिग्विजय यात्रा का उन्होंने लम्बा वर्णन किया है। इन सारे वर्णनों की तुलनात्मक जानकारी के लिए बाणभट्ट के तत्सदश प्रसंगों के साथ मिलाकर पढ़ना और अर्थ लगाना आवश्यक है। तभी उनका पूरा रहस्य प्रकट हो सकेगा। जैसा हम पहले लिख चुके हैं, इस अन्य के अर्थगाम्भीर्य को समझने के लिये एक स्वतंत्र शोधग्रंथ को आवश्यकता है। केवल मात्र हिन्दी टीका से उस उद्देश्य की आंशिक पूति ही संभव है इस पर भी श्री सुन्दरलाल जी शास्त्रो ने इस महाकठिन प्रायः निष्टीक अन्य के विषय में व्याख्या का जो कार्य किया है, उसकी हम विशेष प्रशंसा करते हैं और हमारा अनुरोध है कि उनके इस ग्रन्थ को पाठकों द्वारा उचित सन्मान दिया जाय । महाकवि सोमदेव को अपने ज्ञान और पाण्डित्य वा बड़ा गर्व था और 'यशस्तिलक' एवं 'नौतिवाक्यामृत' को साक्षी के आधार पर उनकी उस भावना को यथार्थ ही कहा जा सकता है । 'यशस्तिलक' में अनेक अप्रचलित पिलष्टतम शब्दों को जान बूझकर प्रगत किया गया है ! अश्युक्त और क्लिप शब्दों के लिए सोमदेव ने अपनो काव्यरचना का द्वार खोल दिया है। कितने ही प्राचीन शब्दों का वे जैसे उद्धार करता चाहते थे । इसके पूर्वखण्ड के कुछ उदाहरण इस प्रकार है-धृष्णि - सूर्य रश्मि (पूर्वखण्ड पृ० १२, पंक्ति ५) । वल्लिका= शृंखला, हिन्दी बेल; हाथी के बांधने को जंजीर को 'गजवेल' कहा जाता है और जिस लोहे से वह बनती है उसे भी 'गजबेल' कहते थे {१८ार पूर्व०)। सामज = हाथी; (१८.७ पूर्व०) कालिदास ने इसका पर्याय सामयोनि (रघु० १६.३) दिया है और माघ (१२११) में भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है । कमल शब्द का एक अर्थ मृगविशेष अमरकोश में आया है और बाण की कादम्बरी में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है । सामदेव ने इस अर्थ में इस शब्द को रमजा है (२३।१ पूर्वस्खण्ड) । इसीसे बनाया हुआ कमली शब्द ( २४.३ पूचं ) । मृगांक- चन्द्रमा के लिए उन्होंने प्रयुक्त किया है । कामदेव के लिये शूर्पकाराति ( २५।१ पूर्वखण्ड ) पर्याय कुषाण युग में प्रचलित हो गया था। अश्वघोष ने बुद्धचरित और सौन्दरनन्द दोनों ग्रन्थों में पूर्पक नामक मछुवे की कहानी का उल्लेख किया है । वह पहले काम से अविजित था, पर पीछे कुमुद्वतो नामक राजकुमारी को प्रार्थना पर कामदेव ने उसे अपने वश में करके राजकुमारी को सौंप दिया । आच्छोदना= मृगया ( २५।१ पूर्व०); पिथुर = पिशाच ( २८६३ पूर्व ); जख्य =पल या मांस ( २८३ पूर्व०); दैघिकोय = कमल (३७७ पूर्व विरेष= नद ( ३७१९ पूर्व); गर्वर = महिप ( ३८६१ पूर्व०); प्रघि = कूप ( ३८16 पूर्व०); गोमिनी= थी । ४२।९ पूर्व०); कच्छ - पुष्पवाटिका ( ४९।२ पूर्व ); दर्दरीक = दाडिम { १५/८ पूर्व०); नन्दिनी = उज्जयिनी ( ७०१६ पूर्व), मय - उष्ट्र (७.१३ पूर्व०); मितदु - अश्व (७५/४ पूर्व०); स्तभ = छाग ( ७८/६ पूर्व०); पालिन्दी = वीचि (१०६३ पूर्व०); बलाल - वायु ।११।५ पूर्व प्लाक = घंधक । २३५.१ पर्व हत्यादि नये शब्द ध्यान देने योग्य हैं, जिनका समावेश सोमदेव के प्रयोगानुसार संस्कृत कोशों में होना चाहिए। सोमदेव ने कुछ वेदिक शब्दों का भी प्रयोग किया है। जैसे विश्चक - श्वा ( ६११९ पूर्व०); शिपिविष्ट ( ७७१ पूर्व०); जो ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त हुआ है, किन्तु पञ्जिकाकार ने जिसका अर्थ रुद्र किया है। तमङ्ग ( ९५।१ पूर्व ) शब्द भोजन समरांगण मूत्रधार में कई बार प्रयुक्त हुआ है, जो कि प्रासाद शिल्प का पारिभाषिक शब्द था। इस समय लोक में आधे खम्भे या पार्श्वभाग को तमजा कहा जाता है। सप्तर्षि अर्थ में चित्रशिखण्डि शब्द का, प्रयोग ( ५१११ पूर्व ) बहुत हो कम देखने में आता है। केवल महाभारत शान्तिपर्व के नारायणीय पर्व में इसका प्रयोग हुआ है और सोमदेव ने वहीं से इसे लिया होगा। इससे ज्ञात होता है कि नये-नये शब्दों को ढूंढकर लाने की कितनी अधिक प्रवृत्ति
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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