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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मिव तपस्विनीप्रचुरम्, पूर्णटिजटाजूटमिव चन्द्रलेखाप्यासितम्, मुगप्रयावसानमिव कलिपरिगहीत, विवसमिय साकमण्डसम, अनम्बरिषमप्परिमेवार फारम्, अमाहेरघरमपि जातशिवप्रियम्, अवेबवचनमपि गायत्रीसारम्, अकविलोकगणनमपि सकालिकासम्, अप्रथमाधममपि ब्रह्मारिबहुलम्, अस्थानापसमयमपि सवाईमावम, अध्यासित ( वाकुचियों से आश्रित ) व पक्षान्तर में चन्द्रकला से सहित ) है । जो वैसा कलिपरिगृहीत ( विभौतक तरु-चहेड़े के वृक्ष से सहित ) है जैसे कृतयुग, त्रेता व द्वापर इन तीन युगों का पर्यन्त भाग कलिपरिगृहीत ( दुःखमकाल-सहित ) होता है। जो वैसा सार्कमण्डल ( अकोआ वृक्षों के वन से व्याप्त ) है जैसे दिन सा(मण्डल (श्रीसुर्यमण्डल-सहित ) होता है। जो अनम्बरिष ( युद्ध-रहित । होकर के भो अरि-मेद-स्फार ( शत्रुओं की मेदधातु से प्रचुर ) है । यहाँपर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो युद्ध-रहित होगा, वह यात्रुओं की मेदधातु से प्रचुर कैसे हो सकता है ? उसका परिहार यह है कि जो अनम्बरिष (नुपरहित ) है और निश्चम से अरिमेद (विट खदिर वृक्षों ) से प्रचुर है। जो अमाहेश्वर ( रुद्र-रहित ) होकर के भी जातशिवप्रिय ( उत्पन्न हुई पार्वती प्रिया वाला है। यह भी विण्ड है, क्योंकि जो मद्र-रहित होगा, वह पार्वती प्रिया-शाली कैसे हो सकता है ? उसका परिहार यह है कि जो अमा-हि-ईश्वर ( निश्चय से लक्ष्मी व स्वामी से रहित ) है और निश्चय में जातशिप्रिय ( उत्पन्न हा तविशेष से व्याप्त ) है । अथवा-जो अमाहेश्वर ( महेश्वर देवता की आराधना न करनेवाला) होकर के भी जात शिवप्रिय (शिवजी से प्यार करनेवाला) है। यह भी विरुद्ध है क्योंकि जो महेश्वर (शिव) देवता का माराधक नहीं है वह शिव से प्यार करनेवाला कैसे हो सकता है ? अब परिहार करते हैं जो, अ +मा + हि ईश्वर अर्थात्-प्रायः करके वन स्वामी-हीन होता है. अतः जिसमें लक्ष्मी व स्वामी नहीं है और निश्चय से जो, जात शिव प्रिय ( धतूरों की उत्पत्ति वाला है। जो अवेदवचन ( वेद-वचन से रहित होकर के भी गायत्रीसार (साठ छन्द-जातियों से सार) है। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो वेदवचन नहीं हैं, वह साठ प्रकार की छन्दजातियों से सार कैसे हो सकता है ? उसका परिहार यह है कि जिसमें अवेदों ( स्त्रीवेद, पुवेद व नपुंसक वेद-रहित मुनियों) के वचन पाये जाते हैं, क्योंकि मुनिलोग वनवासी होते हैं। एवं निश्चय से जो गायत्रीसार ( खदिर वृक्षों से मनोहर ) है। जो अकदिलोकगणन ( कवि-समूह की गणना से रहित ) होकर के भी सकालिदास ( कालिदासकविसहित है। यह भी विरुद्ध है; क्योंकि जो कविलोक की गणन से रहित होगा, वह कालिदास महाकवि-से सहित नौसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अक-विलोक-गणन है । जिसमें काट के देखने को गणना है ) और जो निश्चय से सकालिदास ( आम्रतर-सहित ) हैं । जो अप्रथमाश्रम ( ब्रह्मचर्याश्रम से रहित ) होकर के भी ब्रह्मचारी बहुल है। यह भी थिरुद्ध है, क्योंकि जो ब्रह्मचर्याश्रम-रहित होगा, वह ब्रह्मचारियों से बगुल कैसे हो सकता है? इसका परिहार यह है कि जो अप्रथमान-आ-श्रम है, अर्थात्-जिसमें चारों ओर से कष्ट विस्तृत नहीं होरहा है और जो निश्चय से ब्रह्मचारी-बहुल है ( पलापा वृक्षों से प्रचुर है ) । जो अस्याद्वाद समय (एकान्त समय ) हो करके भी सवर्धमान ( महावीर तीर्थङ्कर-सहित ) है। यहाँ पर भी विरोध प्रतोत होता है, क्योंकि जो एकान्तदर्शन होगा वह चरमतीर्थकर सहित कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अस्याद्वादसमय ( शून्य वन होने के कारण जो शब्दामसर-रहित ) है और निश्चय से जो सवर्धमान ( एरण्डवृक्ष सहित ) है। १. श्लिष्टमालोपमासंफारः । २. उक्तं प-शिवमतली पाशुपत एकाष्ठीको नुको वसुः ।' से दी०ए० १९५ से संकलित-सम्पादक
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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