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प्रश्नों के उत्तर
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घिरे हैं, उतने प्रशिक्षित कष्टों से पीड़ित नहीं मिलेंगे । कारण स्पष्ट है कि उनके पास प्रक्षरीज्ञान तो है, परन्तु कष्टों से मुक्त होने की कला नहीं है, या सोधी-सी भाषा में यों कहिए कि उनका दिमाग तो चलता है, पर हाथों-पैरों में गति नहीं है । वे सिर्फ कुर्सी पर बैठना जानते हैं और कुर्सी सव को सुलभ नहीं होती और यदि सबको कुर्सी दे भी दी जाए तो भी समस्या हल नहीं होती। क्योंकि उन कुर्सीनुमा वावुत्रों के पेट एवं जेबें भरने के लिए अन्न एवं पैसा कहाँ से आएगा ? जबकि सभी बाबू बने बैठे हैं। और आज की शिक्षा में सबसे बड़ा दोष है तो यही है कि वह क्लर्क, मास्टर एवं इंजिनियर तैयार कर देती है, पर उत्पादक एवं जगत का परिपोषक तैयार नहीं करती यही कारण है कि चारों ओर शोषण एवं स्वार्थ के दौर चल रहे हैं । तो मैं बता रहा था कि विद्या तो है, पर कष्टों, सक्लेशों एवं मुसीबतों से उबारने के स्थान में उनमें धकेलने वाली है । और इस शिक्षा या ज्ञान पद्धति के जनक रहे हैं- पाश्चात्य देश के व्यक्ति या यों कहिए मांसाहारी । इससे स्पष्ट हो गया कि मांसाहारियों का ज्ञान स्वार्थ से भरा है । उनकी शिक्षा प्राणी जगत का शोषण करके अपना पोषण करने की रही है । और उसी के परिणाम स्वरूप सारा विश्व श्राज दुःख की प्राग में जल रहा है, संकटों एवं मुसीबतों की चक्की में पिस रहा है।
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ध्रुव रही बात उन्नति एवं तरक़्क़ी की, वह तो हम देख ही रहे हैं। यह ठीक है भौतिक क्षेत्र में पाश्चात्य देशों ने कुछ विकास किया है, परन्तु जीवन केवल भौतिक पदार्थों पर ही तो आधारित नहीं है । शरीर को खाने-पीने, पहनने प्रोढने एवं रहने प्रादि के लिए भौतिक पदार्थों की आवश्यकता रहती है । परन्तु यह ही तो सब कुछ नहीं है । इसके अतिरिक्त और भी कुछ है, जो इस शरीर का संचालक है । झोर
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