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प्रश्नों के उत्तर
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पहचान नहीं कर सकता, वह तो पागल कुत्ते की तरह काटने दौड़ता . है। और मांसाहारी व्यक्ति में प्रवेश की मात्रा अधिक होती है। ज़रा-सी बात को भी वह सह नहीं सकता। और पाश्चात्य देश के व्यक्ति भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। अंग्रेजों के क्रोध से भारतीय परिचित ही हैं। वे ज़रा-सी बात को भी सह नहीं सकते। ज़रा-से : अपमान को बदला थप्पड़, बेंत या गोली से लेते हैं। छोटी-छोटी बातों : .एवं थोड़े-से स्वार्थों के लिए युद्ध की आग प्रज्वलित कर देते हैं। ... - दूसरा प्रश्न रहा बुद्धि की स्थूलता. या ज्ञान की कमी का ? वह भी स्पष्ट है। हम यह नहीं मानते कि मांसाहारी में ज्ञान नहीं होता। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है और वह प्रत्येक प्रात्मा में रहता ही है। परन्तु जब हम यह कहते हैं कि मांसाहारी व्यक्ति में बुद्धि या ज्ञान का विकास नहीं होता, तो हमारा तात्पर्य अक्षरी ज्ञान से नहीं, विवेक से हैं। क्योंकि भारतीय संस्कृति में उसी ज्ञान को महत्त्व दिया है, जो विवेक से युक्त है । विद्या या ज्ञान की परिभाषा करते हुए एक महान . विचारक एवं चिन्तक ने कहा है- “सा विद्या या विमुक्तये', अर्थात्.. वही विद्या या अक्षरी ज्ञान वास्तविक विद्या है, जो व्यक्ति को जन्म
मरण के दुःखं से मुक्त कराती है, छुटकारा दिलाती है। वस्तुतः ज्ञान . ... वहीं सार्थक है, जो विवेक-युक्त है. और सर्व जगत के हित में गतिशील
है । और मांसाहारी व्यक्ति में इस विवेक की कमी है। ...... यह सत्य है कि पाश्चात्य व्यक्तियों ने भौतिक ज्ञान-विज्ञान के
क्षेत्र में विकास किया है और अंग्रेज़ भी कूटनीति में निपुण हैं । परन्तु । यह वात सारे अंग्रेजों एवं पाश्चात्य देश के सभी निवासियों में नहीं . पाई जाती । अंग्रेजों में भी बहुत से निरक्षर भट्टाचार्य मिलेंगे, जिन्हें , - A, B, C, D भी लिखना पढ़ना नहीं पाता। पर हमारा तात्पर्य तो ..