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के साथ अर्थ का संबंध नहीं होता, तब अर्थ अप्रकाशित ग्हते हैं । अर्थ अप्रकाशित दशा को छोडकर जब प्रकाशित दशा में आते हैं तब अर्थ और प्रकाश का संबंध स्पष्ट प्रतीत होता है । वृक्ष जब तक अंधेरे में रहता है तब तक अप्रकाशित रहता है । प्रकाशित न होने पर भी वह विद्यमान है । अर्थ का भी जब ज्ञान नहीं होता तव वह अज्ञान दशा में रहता है। जब उसका ज्ञान होता है तब वह ज्ञात रूप में प्रतीत होता है। वृक्ष की प्रकाशित दशा जिस प्रकार प्रकाश के बिना नहीं हो सकती, इस प्रकार अर्थ की ज्ञातता ज्ञान के बिना नहीं हो सकती, इस रीति से ज्ञातता के द्वारा ज्ञान का अनुमान होता है।
कुमारिलभट्ट के अनुगामी मीमांसकों के इस मत का निषेध 'स्व और पर' पद से हुआ है। जैन मत के अनुसार ज्ञान परोक्ष नहीं है किन्तु प्रत्यक्ष है । ज्ञान केवल अर्थ को नहीं प्रकाशित करता, अपने स्वरूप को भी प्रकाशित करता है। प्रकाश और वृक्ष का संबंध जिस प्रकार प्रत्यक्ष है इस प्रकार अर्थ का और ज्ञान का संबंध भी प्रत्यक्ष है। वृक्ष के साथ जिस प्रकार प्रकाश भी दिखाई देता है इस प्रकार अर्थ के साथ ज्ञान भी प्रतीत होता है । प्रकाश और ज्ञान दोनों प्रकाशक हैं। सूर्य चन्द्र, और दीपक आदि का प्रकाश जब वृक्ष आदि को प्रकाशित करता है तब स्वयं भी दिखाई देता है। जिस प्रकार वृक्ष प्रकाशित प्रतीत होता है। इस प्रकार प्रकाश भी प्रकाशित होता है। ज्ञान भी जब अर्थ को प्रतीत कराता है तब केवल अर्थ को नहीं अपने स्वरूप को भी प्रकाशित करता है। प्रकाश और ज्ञान दोनों स्व और पर के प्रकाशक हैं। इस प्रकार यहाँ स्व और पर पद के द्वारा ज्ञान के परोक्ष स्वभाव का निषेध हुआ है ।