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यह वाक्य-नय है। जब 'घट है ही' इस प्रकार बोलकर बिना किसी अपेक्षा के सत्त्व धर्म का प्रतिपादन करते हैं, तब असत्त्व का निषेध करने के कारण बह वाक्य-नय नहीं रहता किन्तु दुर्नय हो जाता है।
नय के लक्षण में प्रकाशित अंश से भिन्न अंश का निषेधक न होना भी कहा गया है। यहां पर भिन्न पद से केवल भेद का अभिप्राय नहीं है, किन्तु विरोधी भिन्न धर्म का ग्रहण है। प्रत्यक्ष से फल आदि के रूप का ज्ञान होता है। यह ज्ञान फल के रस आदि धर्मों का निषेध नहीं करता। परन्तु यह नय नहीं है। रूप और रस आदि विरोधी नहीं है। इसलिए रूप को देखने पर रस आदि की प्रतीति और उसके निषेध की सम्भावना ही नहीं है अतः रूप का प्रत्यक्ष ज्ञान नय नहीं है। जब घट का सत्त्व धर्म प्रतीत होता है तब विरोधी असत्त्व धर्म का अभाव प्रतीत होने लगता है। उसकी ओर उदासीन भाव धारण करके जब स्व द्रव्य आदि की अपेक्षा से सत्त्व का प्रकाशन होता है तब नय कहा जाता है। प्रत्यक्ष आदि अपेक्षा से एक धर्म का प्रतिपादन करके किसी विरोधी धर्म की ओर उदासीन भाव नहीं रखते अतः नय नहीं हैं। मूलम् :- प्रमाणैकदेशत्वात् तेषां ततो मेदः । यथा हि
समुद्रैकदेशो न समुद्रो नाप्यसमुद्रस्तथा नया अषि
न प्रमाणं न वाऽ.प्रमाणमिति । अर्थः- प्रमाण का एक देश होने से उन नयों का प्रमाण से भेद
है। जिस प्रकार समुद्र का एक देश न समुद्र है-न
असमुद्र है, इस प्रकार नत्र भी न प्रमाण हैं-न भप्रमाण हैं। विवेचना-नय झान रूप हैं। जिस धर्म का प्रतिपादन करते हैं सका सत्य रूप में करते हैं। तात्विक स्वरूप में रूप रस गन्ध