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श्री रत्नप्रभसूरि कहते हैं- तिर्यक सामान्यं तु प्रतिव्यक्तिसदृशपरिणाम लक्षणं व्यंजनपर्याय एव । [रत्नाकरावतारिका, परिच्छेद-७, सूत्र-५, पृष्ठ-७, भाग तीसरा]
मूलम् :- प्रवृत्ति निवृत्तिनिबंधनार्थ क्रियाकारित्वोपलक्षितो व्यञ्जनपर्यायः। भूतभविष्यत्वसंस्पर्शरहितं वर्तमानकालावच्छिन्न वस्तुस्वरूपं चार्थपर्यायः ।
अर्थः- प्रवृत्ति और निवृत्ति में कारणभूत अर्थ क्रियाकारित्व से उपलक्षित पर्याय व्यंजनपर्याय है। भूत और भाविपन के स्पर्श से रहित वर्तमान काल में होनेवाला वस्तु का स्वरूप अर्थ पर्याय है।
विवेचनाः- वस्तुओं में अनेक प्रकार के धर्म होते हैं, उन धर्मों के कारण अर्थ भिन्न भिन्न कार्यों को करते हैं। अग्नि में उष्ण स्पर्श है इसलिये उसके द्वारा दाहरूप कार्य उत्पन्न होता है। दाहरूप अर्थ क्रियाको उत्पन्न करनेवाला अग्निका उष्ण परिणाम व्यंजन पर्याय है। अल्प और महा परिणाम में अग्नि के अर्थ पर्याय प्रतिक्षण भिन्न होते रहते हैं, परन्तु उष्ण पर्याय स्थिर रहता है। उष्ण परिणाम के कारण अग्नि दाहरूप अर्थक्रिया का जनक है। इस स्वरूप को जानकर लोगों की अग्नि के विषय में प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है। जीव का चैतन्य भी वृक्ष आदि के विषय में ज्ञान उत्पन्न करता है। अर्थ को प्रकाशित करना ज्ञान की अर्थ क्रिया है। सुख दुःख आदि पर्याय भिन्न होते रहते हैं। परन्तु चैतन्य सभी पर्यायों में स्थिर अबुगत रहता है। ज्ञान के द्वारा वस्तु का प्रकाशन होने पर लोग प्रवृत्ति करते हैं अथवा निवृत्त होते हैं। जब सुख होता है तब दुःख नहीं रहता · जब दुःख होता है तब सुख नहीं रहता। परन्तु ज्ञान सुख-दुःख दोनों के काल में रहता है इस अनुगामी स्वरूप के कारण चैतन्य व्यंजन-पर्याय है। अर्थ, अर्थ क्रियाको सदा उत्पन्न नहीं