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देखकर बुद्धि होती है यह कभी इन्द्र बनेगा परन्तु नाम इन्द्र को देखकर इस प्रकार को बुद्धि नहीं होती।
मूलम्- द्रव्यमपि भावपरिणामिकारणत्वान्नामस्थापनाभ्यां
भिधते, यथा ह्यनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यम्, उपयुक्तत्वकाले उपयोगलक्षणस्य भावस्य कारणं भवति, यथा वा साधुजीवो द्रव्येन्द्रः सद्भावेन्द्ररूपायाः परिणतेः, न तथा नामस्थापनेन्द्राविति । नामापि स्थापना
द्रव्याभ्यामुक्तवैधादेव भिद्यते इति । अर्थ-भाव का परिणामी कारण होने से द्रव्य, नाम और
स्थापना से भिन्न है । जैसे उपयोग रहित वक्ता द्रव्य है, जब वह उपयोगवाला होता है तब उपयोग स्वरूप भाव का कारण होता है । अथवा जिस प्रकार भावेन्द्र रूप परिणाम का कारण होनेसे साधु का जीव द्रव्येन्द्र होता है । नाम-इन्द्र और स्थापना इन्द्र इस प्रकार भाव इन्द्र के परिणामी कारण नहीं बनते । जो विलक्षण धर्म पहले कहा है उसके कारण ही स्थापना और द्रव्य से नाम भी भिन्न
विवेचना-वर्तमान काल में जो पर्याय है उनके साथ संबद्ध परिणामी कारण भाव कहा जाता है । भाव रूप में परिणत होने से परिणामी कारण को कार्यभाव का द्रव्य कहा जाता है। मिट्टी का पिंड भाव घट के रूप में परिणत होता है इस लिए