Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Ishwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
Publisher: Girish H Bhansali

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Page 584
________________ अर्य:-यह तब हो सकता था, यदि अजीव होता हुआ कोई अर्थ भावी कालमें जीव हो जाता । जिस प्रकार जो देव नहीं है वह देव होने वाला हो तो द्रव्यदेव कहा जाता है परन्तु यह सिद्धान्त में इष्ट नहीं है, कारण, जीवत्व आदि और अन्तसे रहित परिणामिक भाव माना जाता है। विवेचनाः-वर्तमान कालमें जो पर्याय है उसका कारण स्वरूप अर्थ, द्रव्य कहा जाता है। घट वर्तमान कालका परिणाम है । मृत्पिड इसका कारण है, वह धट के रूपमें नहीं है-इसलिए द्रव्य घट कहा जाता है। यदि कोई जीवभिन्न अर्थ अन्य काल में जीव रूपसे परिणाम को प्राप्त हो सके तो कारण होनेसे उसको द्रव्य जीव कहा जा सकता है । परन्तु जीव न उत्पन्न होता है न नष्ट होता है । जो अर्थ जीवसे भिन्न चेतनाशून्य है वह कभी जीव स्वरूप को नहीं प्राप्त करता । जो अभी मनुष्य है परन्तु पीछे कभी देवरूपमें होगा वह मनुष्य होता हुआ भी द्रव्य देव है । परन्तु अजीव और जीवका परस्पर कार्य-कारणमाव नहीं है, इसलिए कोई भी अर्थ द्रव्य जीव नहीं हो सकता । मूलम्-तथापि गुणपर्यायवियुक्तत्वेन बुद्धया कल्पितोऽनादि पारिणामिकभावयुक्तो द्रव्यजीवः, शून्योऽयं भङ्ग इति यावत् , सतां गुणपर्यायाणां बुद्धयापनयस्य कर्तुमशक्यत्वात् न खलु ज्ञानायत्तार्थपरिणतिः किन्तु अर्थों यथा यथा विपरिणमते तथा तथा ज्ञानं प्रादुरस्तीति । -यहाँ पर "सतां गुणपर्यायाणां" से पहले "शन्योऽयं भंग इति यावत्" इतना पाठ नहीं होना चाहिए

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