Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Ishwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
Publisher: Girish H Bhansali

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Page 594
________________ ७० मूल श्लोकःसरिश्री विजयादिदेवसुगुरोः पट्टाम्बराहमणौ, सूरिश्री विजयादिसिंहसुगुरौ शक्रासनं भेजुषि । तत्सेवाऽप्रतिमप्रसादज नितश्रद्धानशुद्धया कृतः, ग्रन्थोऽयं वितनोतु कोविदकुले मोदं विनोदं तथा ॥१॥ अर्थ:-श्री विजयदेवसूरि गुरुजीके पाट रूप आकाशमें श्री विजयसिंहसूरि गुरुजी जब इन्द्र के आसनपर प्रतिष्ठित हो गये तब उनकी सेवाके अनुपम प्रसादसे जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ उसकी निर्मलता के कारण इस ग्रन्थकी रचना हुई है। यह ग्रन्थ पण्डितोंके कुलमें आनन्द और विनोदका प्रसार करता रहे ॥१॥ श्लोकःयस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशयाः, भ्राजन्ते सनया नयादि विजयप्राज्ञाश्च विधाप्रदाः । प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः, तेन न्यायविशारदेन रचिता स्तात्तर्कभाषा मुदे ॥ २ ॥ अर्थः-उत्कृष्ट आशयवाले पंडित जोविजय जिसके गुरु थे और नय युक्त पण्डित नयविजय जिसके विद्यादाता बिराजमान हो रहें हैं, जिसके प्रेमका निवासरूप पंडित पद्मबिजय सगाभाई है उस न्यायविशारदने तक भाषा की रचना की है। यह तर्क भाषा आनंद के लिए होती रहे ॥२॥

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