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किन्तु " द्रव्यजीवः” इसके अनन्तर " इति केचित् तन इतना पाठ होना चाहिए । “तथा तथा ज्ञानं प्रादुरस्तोति " इसके अनन्तर " शून्योऽयं भंग इति यावत् " इतना पाठ होना चाहिए। इस प्रकार पाठ को मानने पर अर्थ इस प्रकार होगा
अर्थः- तो भी गुण और पर्यायसे रहित रूपमें बुद्धिके द्वारा कल्पित किआ हुआ अनादि वारिणामिक भावसे युक्त द्रव्य जीव हैं । यह मत युक्त नहीं, जो गुण और पर्याय विद्यमान हैं उनको कल्पनासे नहीं हटाया जा सकता । पदार्थका परिणाम ज्ञान के अधीन नहीं है किन्तु अर्थ जिस जिस रूपसे परिणाम को प्राप्त करता है उस उस रूपसे ज्ञान प्रकट होता है ।
विवेचनाः- द्रव्यका गुण और पर्यायोंके साथ जो सम्बन्ध है वह किसी कालमें दूर नहीं होता परन्तु उसकी कल्पना की जा सकती है । वस्तुका जो स्वरूप है उसके विरुद्ध अर्थ सत्य रूप में नहीं हो सकता परन्तु कल्पना के द्वारा न्यून और अधिक परिणाम में वह विरुद्ध किया जा सकता है । एक मनुष्य जब तक मनुष्य है तब तक उसके शरीर पर सिंहका सिर नहीं है परन्तु सिंहके सिरवाले मनुष्य की कल्पना हो सकती है । इसी प्रकार मनुष्यके शरीर में पंख नहीं होते परन्तु कल्पनाके द्वारा उसमें पंख लगाये जा सकते हैं । इसी प्रकार द्रव्य यद्यपि किसी कालमें गुण और पर्यायोसे रहित नहीं होता तो भी द्रव्यके इस प्रकार के स्वरूपकी कल्पना की जा सकती है जिसमें गुण और पर्याय न हों । इस