Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Ishwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
Publisher: Girish H Bhansali

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Page 587
________________ अर्थः-इस प्रकार होनेसे नाम आदि चार निक्षेपोंकी व्याप कताका भङ्ग हो जाता है यह नहीं मान लेना चाहिए। कारण, प्रायः अन्य समस्त पदार्थों में वे हो सकते है यदि यहाँ एकमें नहीं होते तो इतने से उनकी व्यापकता दूर नहीं होती यह वृद्ध लोगों का कहना है। विवेचनाः-अनुयोग द्वारमें कहा है- जो भी अर्थ हो उसमें चारों निक्षेपोंका सम्बन्ध करना चाहिए "जत्थ य जं जाणिज्जा निक्खेवे गिरवसेसं । जत्थ वि य न जाणिज्जा चउक्कयं णिविखवं तत्थ ॥" [अनुयोग द्वारे सू. १] इति । इस वचनसे निक्षेप वस्तुमात्रके व्यापक प्रतीत होते हैं । यदि जीवमें द्रव्यका निक्षेप न हो सके तो व्यापकताका भङ्ग हो जाता है। इसके उत्तरमें कहते हैं, अधिक पदार्थों के साथ सम्बन्ध होनेसे यहाँ पर व्यापकता कही गई है । कुछ एक अर्थोमें यदि किसी निक्षेप का संबंध न हो तो इतनेसे व्यापकता का भङ्ग नहीं हो जाती । तत्त्वार्थ सूत्रके भाष्य की टीकामें इस वस्तुका प्रतिपादन है। (तत्त्वा र्थाधिगमसूत्र, स्वोपज्ञभाष्यटीकालङ्कृत, प्रथम अध्याय, सूत्र ५ पृष्ठ ४८.) मूलम्-जीवशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्यजीव इत्यप्याहुः। अर्थ:-जो जीव शब्दके अर्थको जानता है किन्तु जीवके विषयमें किसी कालमें उपयोग से शून्य है वह पुरुष . उस कालमें द्रव्य जीव है यह भी कुछ लोग कहते हैं।

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