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उसको द्रव्य घट कहते हैं । नाम घट का अथवा स्थापना घट का परिणाम भाव घट के रूप में नहीं हो सकता, इस कारण द्रव्य नाम और स्थापना से भिन्न है। इसी प्रकार साधुजीव का किसी काल में अर्थात् आगामी भव में भावेन्द्र के रूप में परिणाम हो सकता है, पर नाम-इन्द्र का और स्थापना-इन्द्र का भाव इन्द्र के रूप में परिणाम नहीं होता । इसी अभिप्राय के अनुसार वक्ता पुरुष को द्रव्य कहा जाता है । वक्ता का उपयोग किसी विषय में कभी होता है और कभी नहीं होता है। उपयोग आत्मा का धर्म है जब किसी एक विषय में उपयोग नहीं रहता तब अपेक्षा से आत्मा को उपयोग रहित कहा जाता है । कुछ काल के अनन्तर आत्मा विशेष विषय के उपयोग रूप में परिणत हो जाता है। इस उपयोग का कारण होने से उपयोग रहित आत्मा द्रव्य कहा जाता है।
स्थापना और द्रव्य के जो विलक्षण धर्म दिखाये हैं-वे नाम में नहीं हैं इस कारण नाम का स्थापना और द्रव्य से भेद है।
मूलम्-दुग्धतक्रादीनां श्वेतत्वादिनाऽभेदेऽपि माधुर्यादिना
भेदवन्नामादीनां केनचिद्रपेणाभेदेऽपि रूपान्तरेण
भेद इति स्थितम् । अर्थ-दूध और तक आदि में श्वेत वर्ण आदि के द्वारा अमेद
होने पर भी माधुर्य आदि के कारण जिस प्रकार