Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Ishwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
Publisher: Girish H Bhansali

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Page 576
________________ ५२ नयके अनुसार नाम द्रव्य और भाव ये तीन निक्षेप हैं, स्थापना नहीं है। म्लम्-तन्नानवद्यं यतः संग्रहिकोऽसंग्रहिकोऽनर्पितभेदः परि पूर्णों वा नैगमस्तावत् स्थापनामिच्छतीत्यवश्यमभ्युपेयम्, सङ्ग्रह-व्यवहारयोरन्यत्र द्रव्याथिके स्थाप नाभ्युपगमावर्जनात् । अर्थः-यह कथन निर्दोष नहीं है, कारण संग्रहिक असंग्र हिक अथवा भेदकी विवक्षा न करने वाला परिपूर्ण नैगम स्थापना को मानता है- यह अवश्य मानना होगा। संग्रह और व्यवहार से भिन्न द्रव्याथिक में स्थापना का त्याग नहीं है इससे यह तत्व सिद्ध होता है। विवेचना-संग्रह और व्यवहार में स्थापना के त्याग का प्रतिपादन करनेवाला वादी जिन हेतुओंको कहता है वे हेतु संग्रह और व्यवहार का विरोध नहीं प्रकट करते । वे हेतु नाममें स्थापना का अन्तर्भाव करते हैं और इस कारण वादी स्थापनाके त्यागको स्वीकार करता है। विचार कर देखा जाय तो अन्तर्भाव मानने पर स्थापना का स्वीकार आवश्यक हो जाता है। संग्रह और व्यवहार जब नामको स्वीकार करते हैं तो नामके अन्तर्गत स्थापना को स्वीकार करते हैं-यह मानना होगा । नामसे स्थापना का स्वरूप भिन्न हो और उसका संग्रह और · व्यवहार के साथ संबंध न हो सकता हो, तब स्थापना का त्याग कहा जा सकता है।

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