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तो सादृश्य भी प्रयोजक नहीं होता । वहाँ केवल अभिप्राय प्रयोजक होता है । नाम निक्षेप में अभिप्राय प्रयोजक नहीं होता-इस लिए नाम के द्वारा स्थापना का अभाव युक्त नहीं है । नाम
आदि चारों का भिन्न स्वरूप के साथ संबंध संग्रह और व्यववहार में स्वीकार करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त यह वादी संग्रह और व्यवहार से भिन्न द्रव्यार्थिक में स्थापना का स्वीकार मानता है । संग्रह और व्यवहार से भिन्न नैगम नय द्रव्यार्थिक है इस विषय में मतों का भेद नहीं है । अब इस वादी को नैगम में स्थापना का स्वीकार मानना होगा। नैगम के तीन भेद किये जाते हैं। एक संग्रहिक है, दूसरा असंग्रहिक है, तोसरा परिपूर्ण नैगम है । इन तीनों नगमों में स्थापना को मान लेने पर संग्रह और व्यवहार में भी स्थापना का निक्षेप आवश्यक हो जाता है। मूलम्-तत्राधपक्षे संग्रहे स्थापनाभ्युपगमप्रसङ्गः संग्रहनय
मतस्य संग्रहिक नेगममताविशेषात् । द्वितीये व्यवहारे तदभ्युयगमप्रसङ्गः, तन्मतस्य व्ययहारमतादविशे
षात् । अर्थः-इनमें से पहला पक्ष हो तो संग्रहमें स्थापना को स्वो.
कारकरना पडेगा, कारण, संग्रह नयके के मतमें और संग्रहिक नैगम के मतमें कोई मेद नहीं है । दूसरा पक्ष हो तो व्यवहारमें स्थापना को स्वीकार करना पडेगा, कारण, असंग्रहिक नैगम और व्यवहारके मतमें भेद नहीं है।