Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Ishwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
Publisher: Girish H Bhansali

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Page 581
________________ है, वह भी संग्रह और व्यवहार का सिद्ध हो जाता है । परिपूर्ण नैगम का विषय सामान्य भी है और विशेष भी, इन दोनों का प्रवेश अकेले संग्रह और अकेले व्यवहार में नहीं हो सकता, परंतु स्थापनारूप धर्म का प्रवेश दोनों में हो सकता है। सामान्य और विशेष रूप दोनों स्थापनाओं का स्वीकार परिपूर्ण नैगममें है। संग्रह केवल सामान्यको और विशेषको केवल व्यवहार स्वीकार करता है। इसलिए दोनों को अकेला संग्रह और अकेला व्यवहार यद्यपि स्वीकार नहीं कर सकता पर स्थापना के स्वीकार रूप धर्मको दोनों स्वीकार कर सकते हैं। सामान्य स्थापना जिस प्रकार स्थापना हैं इस प्रकार विशेष स्थापना भी स्थापना है इसलिए स्थापना का स्वीकार नैगमके समान संग्रह और व्यवहार में भी समान रूपसे है। यदि आप कहें यदि दोनों स्थापना को स्वीकार करते हैं तो इस विषयमें संग्रह और व्यवहार का भेद नहीं रहेगा। तो यह शंका युक्त नहीं है, सामान्य स्थापना को स्वीकार करना संग्रह का और विशेष स्थापना को स्वीकार करना व्यवहार का असाधारण धर्म है अतः दोनों का भेद भी है। मूलम्-एतश्च नामादिनिक्षपैर्जीवादयः पदार्था निक्षेप्याः। अर्थः-इन नाम आदि निक्षेपोंके द्वारा जीव आदि पदार्थों का निक्षेप करना चाहिए। जीवके विषयमें निक्षेपः

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