Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Ishwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
Publisher: Girish H Bhansali

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Page 579
________________ ५५ विवेचनाः-संग्रहिक नैगम संग्रह के मतको मानता है। संग्रह जिस प्रकार सामान्य को स्वीकार करता है इस प्रकार संग्रहिक नैगम भी सामान्य को स्वीकार करता है । यदि संग्रह के मत को मानने वाला नैगम स्थापना को मानता है तो संग्रह को भा समान मत होने से स्थापना को मानना पडेगा। यदि आप अ. संग्रहिक नैगम के मतमें स्थापना को स्वीकार करते हैं तो व्यवहार नयमें स्थापना को मानना पडेगा । असंग्रहिक नैगम व्यवहार नय के मतको मानता है । व्यवहार नय जिस प्रकार विशेष को स्वीकार करता है । इस प्रकार असंग्रहिक नैगम भी विशेष को स्वीकार करता है । यदि असंग्रहिक नैगम स्थापना को माने तो समान मत होने से व्यवहार में भी स्थापना आवश्यक हो जाती है। मूलम्-तृतीये च निरपेक्षयोः संग्रहव्यवहारयोः स्थापनाभ्यु पगमोपपत्तावपि समुदितयोः संपूर्णनैगमरूपत्वात्तदभ्युपगमस्य दुर्निवारत्वम् अविभागस्थान्नैगमात्प्रत्येकं तदेकैकमागग्रहणात् । अर्थ:-तीसरे पक्षको माना जाय तो निरपेक्ष संग्रह अर व्यवहारमें स्थापना का अस्वीकार हो सकता है पर परस्पर मिले हुए संग्रह और व्यवहार संपूर्णनगम के स्वरूप में हो जाते हैं इस लिए उनको स्थापना स्वीकार करना पडेगा । विभाग रहित नैगम नयके एक एक भागको संग्रह और व्यवहार स्वीकार करते हैं। विवेचनाः-परिपूर्ण नैगम संग्रह और व्यवहारसे विलक्षण है इसलिए यदि वह स्थापना को स्वीकार करे तो संग्रह और व्य

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