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मूलम्-कथं चाय पिण्डावस्थायां सुवर्णादिद्रव्यमनाकारं भवि
ष्यत्कुण्डलादि - पर्यायलक्षणभावहेतुत्वेनाभ्युपगच्छन् विशिष्टेन्द्राधभिलापहेतुभूतां साकारामिन्द्रादिस्थापनां
नेच्छेत् ?, न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नामेति ।। अर्थः-यह ऋजुसूत्र नय पिण्ड अवस्था में आकारसे रहित
सुवर्ण आदि द्रव्य को भावी कुण्डल आदि पर्यायरूप भाव का कारण होनेसे स्वीकार करता है तो इन्द्र पद के उच्चारण में कारण और आकार से युक्त इन्द्र आदि की स्थापना क्यों नहीं मानेगा ? जो अनुभव से युक्त है वह अयुक्त नहीं होता। विवेचना-जुसूत्र के मत में द्रव्य निक्षेप के सिद्ध हो जाने पर स्थापनाका स्वीकार भी आवश्यक हो जाता है। पिण्ड अवस्था में सुवर्ण-कुण्डल आदि पर्यायों के आकार से रहित होता है । कुण्डल पर्यायरूप भाव का कारण होने से सुवर्ण के पिण्ड को यदि ऋजुसूत्र द्रव्य कुण्डल आदिके रूपमें मान सकता है तो स्थापना के मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । सुवर्ण का पिण्ड देखकर उसके लिए कुण्डल आदि शब्द का प्रयोग नहीं होता। परन्तु इन्द्र को प्रतिमा को देखकर इन्द्र शब्द का प्रयोग होता है । सुवर्ण के पिंड में कुण्डल आदि का आकार नहीं है परन्तु प्रतिमा में इन्द्र का आकार है। भाव इन्द्र का जिस प्रकार वर्तमान काल के साथ सम्बन्ध है इस प्रकार स्थापना इन्द्र का भी अर्थात् इन्द्र की प्रतिमा का भी वर्तमान काल के साथ संबंध है । यह वस्तु प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है अतः ऋजुसुत्र के मत में स्थापना का मानना युक्त है।