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तत्वमनुमन्यन्ते प्रवचनवृद्धाः । एतच्च भिन्नवस्तुगतनामाधपेक्षयोक्तम् ।
अर्थ-अथवा भाव का साधन होने के कारण नाम आदि का
उपयोग है, "जिन" के नामसे "जिन" की स्थापना से और जो मुनि निर्वाण को प्राप्त हो गया है उसके देह के देवनेसे भाव में उल्लास का अनुभव होता है इस लिए नाम आदि भाव के साधन हैं । नाम आदि तोनों भावके उल्लास में एकान्त रूपसे और आत्यन्तिक रूपसे कारण नहीं है केवल इस कारण प्रवचन के वृद्ध आचार्य भावको उत्कृष्ट मानते हैं । यह समाधान भिन्न वस्तुओमें रहनेवाले नाम आदि की अपेक्षासे कहा है ।
विवेचना-सामान्य पुरुष में भी "जिन" नाम का संकेत होता है इस नाम को सुनकर भो श्रोता के मन में भाव जिनका स्मरण हो जाता है और अत्यन्त भक्ति प्रकट हो जाता है । इसी प्रकार जिसके आकार से राग-द्वेष आदि का प्रभाव प्रकट होता है इस प्रकार की जिन प्रतिमा को देख कर भी भाव का उल्लास अनुभव से सिद्ध है । जिन प्रतिमा को देखकर 'कब मेरे राग द्वेष आदि शान्त होंगें और मैं इसके समान हो जाऊँगा' इस प्रकार को इच्छा हो जाती हैं। सम्यक् चारित्र के द्वारा जो मोक्ष को प्राप्त हुआ है, उस मुनि के प्राणहोन शरीर को देखकर भो भक्तिभाव उत्पन्न होता है। इस रीति से भाव की अभिव्यक्ति के साधन होनेसे नाम आदि