Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Ishwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
Publisher: Girish H Bhansali

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Page 566
________________ व्यवहार द्रव्याथिक के मेद हैं और शेष पर्यायार्थिक के भेद है। विवेचना-स्वयं स्थिर रहकर अतीत अनागत और वर्तमान पर्यायों में जो जाता है-वह द्रव्य है। 'द्रवति इति द्रव्यम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पर्यायों में अनुगत और स्थिर द्रव्य की प्रतीति होती है। इस द्रव्य को जो प्रधान रूपसे स्वीकार करता वह नय द्रव्यास्तिक । संग्रह और व्यवहार नय द्रव्यास्तिक के मत का आश्रय करते हैं। संग्रह सामान्य धर्म के द्वारा सब का संग्रह करता है । संग्रय नय के अनुसार सभी पदार्थ सत् स्वरूप हैं। सत् रूपसे समस्त चेतन और अचेतन अर्थों की प्रतीति होती है। इन पदार्थों में परस्पर जो भेद है, वह अन्य को अपेक्षासे प्रतीत होता है अतः वह मुख्य नहीं हैं । सत् स्वरूप की प्रतीतिमें अन्य की अपेक्षा नहीं हैं, अतः वह मुख्य है । सत् स्वरूप की अपेक्षासे सब एक हैं । अनुगामी स्वरूप द्रव्य का असाधारण तत्त्व है, अनुगामो सत्ता के कारण सब को संग्रह कर के सत् रूप से चेतन और अचेतन को एक कहनेवाला संग्रह सत्ता के रूप में द्रव्य का प्रतिपादक है, इसलिए वह द्रव्यास्तिक का भेद कहा जाता है । ___व्यवहार नय भेद का प्रतिपादन करता है । वह जिन भेदों का प्रतिपादन करता है उनमें भी द्रव्य का स्वरूप स्थिर रहता है । पर्याय का आश्रय व्यवहार करता है। पर्याय द्रव्योंसे सर्वथा भिन्न नहीं हैं । व्यवहार नय के अनुसार प्रत् रूप वस्तु के भेद हैं द्रव्य आदि । द्रव्य के भेद हैं जोव आदि । जीव अपने गुण और पर्यायों में अनुगत है । पुद्गल अपने गुण और पर्यायों में अनु

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