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तीनों वस्तुरूप हैं। नाम आदि सभी भाव के साधन हैं पर भाव जिनेन्द्र को देखकर भक्ति का जितना उत्कर्ष प्रकट होता है उतना जिनेन्द्र का नाम सुनने पर अथवा जिनप्रतिमा के देखने पर नहीं होता। इसके अतिरिक्त नाम आदि भाव के उल्लास में कर्भ कारण बनते हैं और कभी नहीं बनते । भाव जिनेन्द्र भक्ति के अत्यंत उल्लास में नियत कारण है इसलिए प्राचीन आचार्य नाम आदि की अपेक्षा भाव का उत्कर्ष अधिक मानते हैं।
मूलम्-अभिन्नवस्तुगतानां तु नामादीनां भावाविनाभूतत्वा
देव वस्तुत्वम्, सर्वस्य वस्तुनः स्वाभिधानस्य नामरूपत्वात्, स्वाकारस्य स्थापनारूपत्वात् कारणतायाश्चद्रव्यरूपत्वात, कार्यापन्नस्य च स्वस्य भाव
रूपत्वात् । । अर्थ-अभिन्न वस्तु में रहनेवाले नाम आदि तो भाव के
साथ अविनाभाव होनेसे ही वस्तु रूप हैं । समस्त वस्तुओं का अपना अभिधान नाम रूप है, अपना आकार स्थापना स्वरूप है, वस्तु में रहनेवाला कारण भाव, द्रव्य स्वरूप है। कार्य रूप में परिणत अपना स्वरूप 'भाव' है।
विवेचना-भाव को वस्तुरूप मान लेने पर परिणामी कारण रूप द्रव्य के विषय में वस्तु होने की शंका नहीं रह सकती। भावके साथ द्रव्य एक वस्तु में है । मृत्पिड घट के रूप में परिणत होता है