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विशेषितप्रतिपत्तिरत्रादुष्टेत्यदोष इति
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पेक्षयाऽन्यतर भङ्गेन वदन्ति । अर्थ:- यद्यपि इस प्रकार सात भङ्गों से युक्त वस्तु स्यादवादी ही स्वीकार करते हैं तो भी ऋजुसूत्र के द्वारा इस वस्तु का जो स्वीकार किया जाता है उसकी अपेक्षा शब्द नय में किसी एक भङ्ग से विशिष्ट अर्थ की प्रतीति दोष से रहित है। इसलिए इस विषय में कोई दोष नहीं इस प्रकार कहते हैं ।
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विवेचनाः अर्थ के किसी एक धर्म का प्रतिपादन करना नय का मुख्य स्वरूप है । सातों भंगों के साथ प्रतिपादन करने पर अनेक धर्मों का निरूपण होने से शब्द नय स्याद्वाद हो जायगा । स्याद्बाद प्रमाणरूप है | यदि शब्द नय सात भंगों से अर्थ का प्रतिपादन करे तो वह प्रमाण हो जाना चाहिए । नय का स्वरूप नहीं रहना चाहिए। इस आशंका को दूर करने के लिए कहते हैं यद्यपि स्याद्वादी सप्तभंगी को स्वीकार करते हैं और सप्तभंगी सात भंगों के रूप में प्रमाण है परन्तु सप्तभंगी का प्रमाणभाव नयभाव का विरोधी नहीं है । प्रत्येक भंग नयरूप है और सातों भंगों का समुदाय प्रमाण रूप है । समुदायी अर्थों का जो स्वरूप होता है. वह उनके समुदाय रूप में नष्ट नहीं होता । वृक्षों का समुदाय वन कहा जाता है। वन रूप में होने पर भी प्रत्येक वृक्ष का वृक्षात्मक स्वरूप दूर नहीं होता । सप्तभंगी के रूप में प्रमाण होने पर भी एकएक भंग का नयभाव सर्वथा दूर नहीं होता । वृक्ष और वन का स्वरूप जिस प्रकार परस्पर विरोधी नहीं है इसी प्रकार सप्तभंगीरूप स्याद्वाद नामक प्रमाण का नयों के साथ विरोध नहीं है । शब्द नय के अनुसार शब्द के वाच्य अर्थ का आश्रय लेकर जो सप्तभंगी प्रकट होती है उसका कोई भी एक भंग जिस रूप में अर्थ का प्रतिपादन करता है वह रूप ऋजुसूत्र के अर्थ की अपेक्षा अधिक विशिष्ट होता है इस तत्त्व में कोई दोष नहीं है ।