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अतिरिक्त जहां आवरण के कारण कोई अर्थ नहीं प्रतीत होता वहां पर आवरण अवश्य प्रतीत होता है । अन्धेरे में पट नहीं दिखाई देता। अन्धकार पट को ढांक देता है और स्वयं दिखाई देता है। कारण में विद्यमान कार्य को ढांकनेवाले किसी अर्थ का ज्ञान नहीं होता इसलिए आच्छादक की कल्पना अयुक्त है कार्य की उत्पत्ति से पहले कारण दिखाई देता है यदि उसको ही कार्य का आच्छादक कहा जाय तो युक्त नहीं है। कारण-त्पादक है वह कार्य का आच्छादक नहीं हो सकता । उत्पत्ति के अनन्तर विद्यमान पट को तन्तु रूप कारण जिस प्रकार नहीं ढकते इस प्रकार उत्पत्ति से पहले भी विद्यमान पट को नहीं ढक सकते । एकान्त का आश्रय लेने पर अर्थ का सत्य स्वरूप प्रकट नहीं होता । प्रमाण कारण के साथ कार्य के सर्वथा अभेद को नहीं किन्तु अनेकान्त रूप से अभेद को सिद्ध करते हैं। एक अपेक्षा से कार्य का कारण के साथ अभेद है और अन्य अपेक्षा से भेद है। जो तन्तु पहले पट के बिना दिखाई देते हैं वही तन्तुवाय के व्यापार से पट रूपमें हो जाते हैं । पट के साथ भी तन्तुओं का रूप दिखाई देता रहता है । तन्तुओं के बिना पट का स्वरूप कभी प्रतीत नहीं होता। कारणभूत तन्तु, बिना पट के भी प्रतीत होते हैं। इस लिए कारण का कार्य के साथ अनेकान्त रूप से भेद और अभेद है। समस्त जड अर्थों का कारण पुद्गल है। पुद्गलों के साथ पर्यायों का भेदाभेद है। अतः जड कार्यों के साथ सत्कार्यवाद के अनुसार प्रकृति का सर्वथा अभेद संग्रहाभास है।
मूलम्:-अपारमार्थिकद्रव्यपर्यायविभागाभिप्रायो व्यवहाराभासः यथा चार्वकदर्शनम्, चार्वाको हि प्रमाणप्रतिपन्नं जीवद्रव्यपर्यायादिप्रविभागं कल्पनारोपितत्वेनापढ्नुतेऽविचारितरमणीयं भृतचतुष्टयप्रविभागमानं तु स्थूललोकव्यवहारानुयायितया समर्थयत इति ।