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अर्थः-द्रव्य और पर्याय के असत्य विभाग को प्रकट करने वाला अभिप्राय व्यवहाराभास है जिस प्रकार चार्वाक दर्शन । चार्वाक प्रमाण के द्वारा सिद्ध जीव द्रव्य और पर्याय आदि के विभाग को काल्पनिक कहकर नहीं मानता है, और लोगों के स्थूल व्यवहार का अनुगामी होने के कारण चार भूतों के विभाग मात्र को स्वीकार करता है, यह विभाग विचार के बिना सुन्दर प्रतीत होता है।
विवेचना:-लोगों का व्यवहार प्रायः ब्राह्य इन्द्रियों के द्वारा चलता है । जिस अथै का इन्द्रियों के द्वारा अनुभव नहीं होता उसकी सत्ता को सामान्य लोग नहीं मानते । सामान्य लोग ही नहीं परीक्षक लोग भी इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान न होने पर स्थूल अर्थों का अभाव मानते हैं । इस प्रकार का व्यवहार यथार्थ है । एकान्त रूप से स्थूल अर्थों के प्रत्यक्ष का आश्रय लेकर चार्वाक जब इन्द्रियों से अम्य अर्थ का निषेध करने लगता है तब व्यवहाराभास हो जाता है । अर्थ दो प्रकार के हैं, इन्द्रियगम्य और इन्द्रियों से अगम्य । जिन अर्थों का संवेदन इन्द्रियों द्वारा नहीं होता उनको यदि न स्वीकार किया जाय तो स्थूल प्रत्यक्ष अर्थों का आधार नहीं रह सकता । वृक्ष-लता,फूल,फल ईंट-पत्थर आदि जितने अर्थ हैं इन सबके अवयवों का जब विभाग होता है तब छोटे-मोटे खंड दिखाई देते हैं। इनमें से ईंट और पट आदि को बनाना हो तो मिट्टी के पिंडों के संयोग से ईंटों को
और तन्तुओं के संयोग से पट को बनाया जाता है । अवयवों के संयोग से अवयवो द्रव्य उत्पन्न होते हैं और अवयवों के विभाग से नष्ट होते हैं । यह नियम स्थूल द्रव्यों के जन्म और नाश को देखकर सिद्ध होता है। इस नियम के अनुसार द्रव्यों के स्थूल अवयवों के खड होते चले जायेंगे । खंड करते करते वह अवस्था आ जायगी जब अत्यन्त सूक्ष्म खंड दिखाई तो देगा पर उसके खंड न किये जा सकेंगे इस आदिम स्थूल के अवयव नहीं किये जा सकते हैं तो भी नियम के अनुसार उसके अवयव होने चाहिए । आदिम स्थूल