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लौकिक क्रिया के समान शास्त्र में विहित क्रिया भी विधि के ज्ञान और एकाग्र चित्त के होने पर फल देतो है । शास्त्र में सम्बक चारित्र को मोक्ष का कारण कहा गया है। यदि कोई, लोगों को वंचित करने के लिए चारित्र का पालन करता हो तो उसको मोक्ष । नहीं मिलेगा किन्तु अनेक जन्मों में दुःख मिलेगा। वंचना के साथ किया हुआ चारित्र मुख्य रूपसे चारित्र नहीं है, अप्रधान चारित्र है और इस कारण द्रव्य चारित्र है।
अधिकार न होने के कारण भी क्रिया अप्रधान हो जाती है और उचित फल नहीं उत्पन्न करतो। वह पथिक जो मार्ग को जानता है और पहुँचने के स्थान के लिए एकाग्र चित्त भी है, वह यदि रोगी हो और दूर तक चलने में असमर्थ हो तो कुछ दूर तक चलकर रह जायगा और वांछित स्थान पर न पहुँच सकेगा । रोगी पथिक दूर तक की यात्रा का अधिकारी नहीं है । उसको यात्रा अप्रधान क्रिया रूप है इसलिए वांछित स्थान तक पहुँचाने में असमर्थ है। रोगी यात्री के समान अभव्य और दूरभव्य जीव यदि एकाग्र चित्त से पूजा करे तो भी अधिकारी न होनेसे इष्ट फल को नहीं प्राप्त कर सकता। तीर्थकर आदि की पूजा के देखनेसे सामायिक का ज्ञान प्राप्त होने के कारण उसकी पूजा में प्रवृत्ति हो सकती है पर इष्ट फल नहीं मिल सकता।
जिसका चित्त एकाग्र नहीं है जो संसार के अन्य विषयों का