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त्रिष्वपि भावस्याभावात् । द्रव्यमपि नामस्थापनाद्रव्येषु वर्तते एव, द्रव्यस्यैव नाम स्थापनाकरणात् द्रव्यस्य द्रव्ये सुतरां वृत्तेश्चेति विरुद्ध धर्माध्यासाभावान्नैषां भेदो युक्त इति चेत्,
अर्थ - शंका करते हैं-भाव को छोडकर नाम आदि का परस्पर क्या भेद है ? तीनों में वृत्ति का अर्थात् स्थितिका कोई मेद नहीं है । इस में हेतु यह है । नाम नामवान् पदार्थ में, स्थापना में और द्रव्य में समान रूपसे रहता है । स्थापना का स्वरूप भाव अर्थसे रहित होना है, वह भी तीनों में समान है - कारण तीनों में भाव को अभाव है । द्रव्य भी नाम, स्थापना और द्रव्य में विद्यमान है । द्रव्य का ही नाम रखा जाता है और द्रव्य की ही स्थापना की जाती है, द्रव्य की द्रव्य में वृत्ति बिना क्लेश के होती ही है, विरोधी धर्मो का सम्बन्ध न होने से इनका भेद युक्त नहीं है । विवेचना अर्थ का वर्तमान काल में जो पर्याय है वह भाव का असाधारण स्वरूप है । यह नाम स्थापना अथवा द्रव्य में नहीं है परन्तु नाम आदि परस्पर में पाये जाते हैं । इन तीनों का जो असाधारण धर्म है वह परस्पर विरोधी नहीं है । जिन के धर्म परस्पर विरोधी होते हैं, वे अर्थ भिन्न होते हैं । शोत स्पर्श और उष्ण स्पर्श परस्पर विरोधी हैं। शीत स्पर्श जल का और उष्ण स्पर्श तेज का धर्म है इस कारण जल और तेज भिन्न हैं । यदि नाम आदि परस्पर विरोधी होते तो इनमें आधार-आधेय