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आरोप से उत्पन्न हुई हैं । पत्र पर
भिन्न लिपियाँ अमेद के स्याही से एक आकार को लिखते हैं और उसको अकार अथवा इकार कहते हैं । लिखा हुआ आकार चक्षुसे देखा जाता है। पर उच्चारण से उत्पन्न होनेवाला शब्द चक्षुके द्वारा प्रतीत होने वाले आकार से शून्य है । निराकार वर्ण का कल्पित आकार में अभेद मान लिया जाता है । यह अभेद का आरोप नेत्र के द्वारा देखने योग्य आकार से शून्य वर्ण की रेखाओं में आरोप किया गया है, इस लिए निराकार कहा जा सकता है ।
चित्र और अक्ष आदि में जो स्थापना की जाती है । वह जब तक चित्र आदि रहते हैं तभी तक रहती है । चित्र आदि के 1 लुप्त होने पर यह स्थापना नहीं रहती । नन्दीश्वर के चैत्यों की प्रतिमा में जो स्थापना है वह शाश्वत प्रतिमाओं के कारण चिर काल तक रहती है । जब तक प्रतिमाओं की कथा चलती है तब तक स्थापना स्थिर है इसलिए यावत्कथिक कही जाती है ।
मूलम् :- भूतस्य भाविनो वा भावस्य कारणं यनिक्षिप्यते स द्रव्यनिःक्षेपः यथाऽनुभूतेन्द्रपर्यायोऽनुभविष्यमा णेन्द्र पर्यायो वा इन्द्रः, अनुभूतघृताधारत्व पर्यायेनुभविष्यमाणघृतपर्याये च घृतघटव्यपदेशवत्तवेन्द्रशब्दव्यपदेशोपपत्तेः ।
अर्थ - भूत भावका अथवा भाची भाव का जो कारण निक्षिप्त किया जाता है वह द्रव्य निक्षेप है, जैसे जो भूतकाल में इन्द्र पर्याय का अनुभव कर चुका है अथवा जो भावी
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