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उत्पन्न संस्कार उसके आत्मामें पीछे भी हैं वह उत्तरवर्त्ती काल में मंगल ज्ञान के संस्कार से युक्त होता है और मंगळ ज्ञान से यदि रहित होता है तो द्रव्य मंगल कहा जाता है । इस प्रकार के ज्ञाता का जीवसे रहित शरीर भी द्रव्य मंगल कहा जाता है । सुवर्ण, रत्न दही, अक्षत आदि भी द्रव्य मंगल हैं । जिसको मङ्गल शब्द के वाच्य अर्थ का वर्तमान काल में ज्ञान है वह आत्मा भाव मङ्गल है । जिनेन्द्र आदि का नमस्कार भी भाव मङ्गल है । जो मंगल के इन चार निक्षेपों को जानता है उसको मङ्गल शब्द के वाच्य अर्थ के विषय में संदेह अथवा भ्रम नहीं उत्पन्न होता । वह प्रकरण के अनुसार जिस में अभिप्राय है उस अर्थ को जान लेता है और अर्थ का उचित विनियोग करता है ।
-मूलम् :- ते च सामान्यतश्चतुर्धा - नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् ।
अर्थ - और वे सामान्न रूप से चार प्रकार के हैं नामस्थापना द्रव्य और भाव भेद से ।
मूलम् - तत्र प्रकृतार्थनिरपेक्षो नामार्थान्यतरपरिणतिर्नाम - निःक्षेपः । यथा सङ्केतितमात्रेणान्यार्थस्थितेनेन्द्रादिशब्देन वाच्यस्य गोपालदारकस्य शक्रादि पर्याय शब्दानभिधेया परिणतिरियमेव वा यथान्यत्रावर्तमाननेन यदृच्छाप्रवृत्तेन डित्थड वित्थादि शब्देन वाच्या ।