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मूलम्:-तत्र द्रव्यार्थिक स्त्रिधा नैगमसङ्ग्रहव्यवहार भेदात् । पर्यायार्थिकश्चतुधा-ऋजुसूत्र-शद्धसमभिरुभूतभेदात् । ऋजुसूत्रो द्रव्यार्थिकस्यैव भेद इति तु जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणाः
अर्थ :- द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का है - (१) नैगम, (२) संग्रह और (३) व्यवहार । पर्यायार्थिक चार प्रकार का है - (१) ऋजुसूत्र, (२) शद्ध, (३) समभिरूढ और (४) एवंभूत । ऋजुसूत्र द्रव्यार्थिक नय का ही भेद है इस प्रकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कहते हैं।
विवेचनाः- श्री सिद्धसेन आदि आचार्यों के अनुसार ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक का भेद है। द्रव्यार्थिक प्रधान रूप से द्रव्य का ग्रहण करता है इसलिए गौग रूप से पर्याय का ग्रहण करता है, वह पर्याय का तिरस्कार नहीं करता। पर्यायार्थिक प्रधानरूप से पर्याय का ग्रहण करता है और द्रव्य का निषेध नहीं करता। प्रमाण द्रव्य और पर्याय दोनों का प्रयान-भाव से प्रतिपादन करता है, इसलिये वह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक से भिन्न है।
मूलम्:- तत्र सामान्य विशेषाद्यनेकधोपनयनपरोऽध्यवसायो नेगमः, यथा पर्याययोद्रेव्ययोः पर्यायव्ययोश्च मुख्यामुख्यरूपतया विवक्षणपरः।
अर्थः- इनमें से सामान्य विशेष आदि अनेक धर्मों का प्रतिपादन करनेवाला नैगम है। दो पर्यायों, दो द्रव्यों और पर्याय और द्रव्य को मुख्य और अमुख्य रूप से कहने में तत्पर नैगम होता है।
विवेचनाः- अनेक धर्मों का प्रतिपादन नैगम में होता है। वह प्रतिपादन गौण और मुख्य भाव से होना चाहिए। यदि गौण