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१५ गुणात्मक रूप आदि पर्यायों के बिना पर्यायत्व नहीं रह सकता। ___ मूलम्:- संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः।
अर्थः- संग्रह के द्वारा प्रकाशित अर्थों का विधिपूर्वक विभाग जो अभिप्राय करता है, वह व्यवहार है।
साधारण धर्म के द्वारा जो अर्थ भिन्न होने पर भी एक प्रतीत होते हैं उनका विशेष धमौं के द्वारा विभाग करना व्यवहार है।
मूलम्:- यथा यत् सत् तद् द्रव्यं पर्यायो वा । यद् द्रव्य तज्जीवादि षड्विधम् । यः पर्यायः स द्विविधः क्रमभावी सहभावी चेत्यादि ।
अर्थः- जिस प्रकार जो सत् है वह द्रव्य रूप अथवा पर्याय रूप होता है जो द्रव्य है वह जीव आदि छह प्रकारका है। जो पर्याय है वह दो प्रकार का है-क्रमभावी और सहभावी इत्यादि ।
विवेचना:- अपर संग्रह अनेक प्रकारका है और पर संग्रह एक प्रकार का है। दोनों संग्रहों से जिनका ज्ञान होता है उनका भेद व्यवहार करता है । समस्त अर्थों को पर संग्रह सत् रूपसे एक करता है । व्यवहार उसका विभाग करता है । सत् दो प्रकारका है द्रव्य और पर्याय। अपर संग्रह समस्त द्रव्योंका द्रव्य रूपसे संग्रह करता है और व्यवहार उन द्रव्यों का जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल रूप से विभाग करता है। इसी प्रकार पर्याय रूप से समस्त पर्यायों का संग्रह है और क्रमभावी तथा सहभावी रूप से उनका भेद है। इसके अनन्तर भी विभाग होने लगता है, जीव दो प्रकार का है मुक्त और संसारी । पुदगल दो प्रकार