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अन्य शब्दों में क्रिया का भान अस्पष्ट रूप से होता है । गो आदि शब्दों को जाति शब्द कहा जाता है पर वहां भी व्युत्पत्ति के अनुसार गमन आदि क्रियाका सम्बन्ध प्रतीत होता है। शुक्ल आदि रूप गुण हैं इस लिए शुक्ल आदि शब्दोंको गुणका वाचक होनेसे गुण शब्द कहा जाता है । जो शुचि हो रहा है वह शुक्ल है इस व्युत्पत्ति के अनुसार निर्मल होना एक क्रिया है जिसके साथ संबंध होने से रूप शुक्ल कहा जाता है गति आदि क्रियाओं के समान होना क्रिया, चलन रूप नहीं है परंतु क्रिया है। होना एक प्रकारका परिणाम है और परिणाम क्रिय है। जितने मी अर्थ हैं-परिणाभी हैं । जीव पुद्गल आदि जितने भी चेतन अचेतन द्रव्य हैं सब पर्यायोंसे युक्त हैं । पर्याय क्षणिक है. प्रथम क्षण में जो पर्याय है वह दूसरे क्षण में नहीं है । चलन रूप अथवा अचलन रूप परिणाम समस्त द्रव्यों में होता है। गुण द्रव्योंसे भिन्न और अभिन्न हैं इसलिए अभेदकी • अपेक्षा से वे भी परिणाभी है । निर्मल होने के कारण रूप शुक्ल कहा जाता है। निर्मल होना भी परिणाम है, इस प्रकार की परिणाम रूप क्रिया के साथ संबंध होनेसे गुण शब्द भी क्रिया शब्द है। जब तक निर्मल हो रहा है तब तक शुक्ल कहा जा सकता है। जब निर्मल भाव नहीं रहेगा तब शुक्ल रूपका स्वरूप भी नहीं रहेगा। उस काल में शुक्ल शब्दका प्रयोग उचित नहीं है ।
देवदत्त आदि शब्दों को कुछ लोग यहच्छा शब्द कहते हैं । वहां भी व्युत्पत्ति के अनुसार देवों के द्वारा दान क्रिया का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में प्रतीत होता है। जिनको द्रव्य शब्द कहा जाता है वे भी संयोगी द्रव्यको अथवा समवायी द्रव्यको कहते हैं । संयोग गुण है परंतु जब संयोग होता है तभी संयोगी द्रव्य शब्द का प्रयोग किया जाता है। दंडका संयोग होना भी क्रिया है। जब तक दंडका सयोग है तभी तक दंडी कहा जाता है, इसलिए यह भी क्रिया शब्द है।
जब लोग शब्दों को पाच प्रकार का कहते हैं, तब व्युत्पत्तिके