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न हो तो जल आदि की क्रियाओं के नष्ट होने के कारण चिरकाल के पीछे अंकुर न उत्पन्न हो सके । जल आदि के कर्मों के समान यम नियम आदि कर्म भी क्षणिक हैं । कोई भी कर्म हो भूतों में हो वा आत्मा में, क्षणिक ही होता है। यम आदि कर्म भी स्वयं नष्ट होकर आत्मा में फल को उत्पन्न करते हैं। आत्मा, शरीर-वाणी और मन से अच्छे बुरे कर्म करता है। कर्म अपने स्वभाव के अनुमार संस्कार उत्पन्न करके कभी शीघ्र और कभी देर से सुख दुःख रूप फल देते हैं । अनेक ज-मों में सुख-दुःख रूप फल को देनेवाले दान आदि कर्म जिस प्रकार धर्म और अधर्म नामक संस्कार को उत्पन्न करके फल देते हैं इसी प्रकार यम नियम आदि मोम को उत्पन्न करने के लिए आत्मा में अदृष्ट संस्कार को उत्पन्न करते हैं। आत्मा का तत्त्वज्ञान आत्मा के विषय में मिथ्या ज्ञान को दूर करके मोक्ष को प्रकट करता है। इस प्रकार यम आदि कर्म अदृष्ट को उत्पन्न करके और तत्त्वज्ञान मिथ्याज्ञान का नाश करके मोक्ष का कारण है। दोनों समान रूप से प्रधान कारण है। भास्कराचार्य आदि इस मत के माननेवाले हैं।
जो लोग ज्ञान को मोक्ष का प्रधान कारण मानते हैं. वे कहते हैं-आत्मा के विषय में मिथ्याज्ञान संसार का मूल कारण है ! उसका नाश तत्त्वज्ञान से हो सकता है। धर्म मिथ्या ज्ञान के विनाश में असमर्थ है। जो कर्म दुःखरूप फल देते हैं वे तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति में प्रतिबंधक हैं। मोक्ष का अभिलाषी पुरुष यम आदि कर्मों के द्वारा तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति में प्रतिबन्धक पापों को दूर करता है। इस प्रकार कर्म तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति में साक्षात् का ण नहीं है किन्तु परंपरा सम्बन्ध से कारण है, अतः तत्त्वज्ञान मोक्ष का प्रधान कारण है और कर्म गौण कारण है। प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में प्रतिबन्धक का अभाव सहकारी कारण है। जो कारण प्रतिबन्धक को दूर करते हैं वे प्रतिबन्धक की निवृत्ति में मुख्य रूप से कारण होते हैं। प्रतिबन्धकों के नष्ट होने पर जो कार्य उत्पन्न होता है उसमें वे कारण