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अर्थ सत् रूप से प्रतीत होते हैं । अर्थों में परस्पर भेद है परन्तु कोई भी अर्थ असत् नहीं है। सत् और असत् का विरोध है। जीव आदि में से यदि कोई अर्थ असत् हो, तो वह सत् रूप से प्रतीत नहीं होना चाहिए। सत् होने पर वह असत् नहीं हो सकता। द्रव्य हो, गुण हो, अथवा कर्म आदि हो, कोई भी हो सत्त्व के बिना अपने भिन्न स्वरूप में वह नहीं रह सकता । समस्त विशेषों में सत्त्व अनुगत है इसलिए द्रव्य है । सत् रूपका ज्ञान न होने पर किसी भी विशेष का ज्ञान नहीं होता। सत्त्व का भेदों के साथ विरोध नहीं है, जीव अजीव आदि परस्पर भिन्न होने पर भी समान रूप से सत् प्रतीत होते हैं। पर्याय और गुणों के बिना प्रतीत होने के कारण यहां सत्त्व सामान्य शुद्ध है। संमति तर्क के व्याख्याकार श्री अभयदेवसूरि भी कहते हैंशुद्ध द्रव्यं समाश्रित्य संग्रहः । [संमति तर्क - अभय देवसूरि कृत व्याख्या सहित पृ. ३११]
मूलम्:- द्रव्यत्वादीन्यवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तद्भेदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसङग्रहः।।
अर्थः- द्रव्यत्व आदि अपर सामान्योंको स्वीकार करनेवाला और उनके भेदों में उपेक्षा करनेवाला अभिप्राय अपर संग्रह है।
विवेचनाः-अपर संग्रह के अनुसार जीव, पुदगल, धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यत्व सामान्य से व्याप्त हैं, इसलिए जीव आदि एक द्रव्यरूप हैं। इसी प्रकार चेतन और अचेतन द्रव्यों के पर्यायोंमें पर्यायत्व नामक अपर सामान्य है, उसके कारण सब पर्याय एक हैं। द्रव्यत्व
और पर्यायत्व आदि पर्यायों के आश्रय द्रव्य और पर्याय हैं। उनके विषय में यह संग्रह उपेक्षा करता है। द्रव्य और पर्याय आदि का निषेध अपर संग्रह के अनुसार नहीं है। पुद्गल आदि द्रव्यों के बिना द्रव्यत्व और क्रमभावी सुखदुःख आदि और सहभावी