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मुख्यभाव न हो तो धर्म और धर्मो का प्रतिपादन नैगम नहीं होना । प्रधान-गौणभाव नियत नहीं है, वक्ता की इच्छा के अनुसार कभी द्रव्य और कभी पर्याय मुख्य और गौण हो जाते हैं। कोई भी नय हो, वक्ता की विवक्षा नय के लिए आवश्यक है। पूर्व आचार्यों के अनुसार नैगम पद की व्युत्पत्ति है पद की व्युत्पत्ति है - ' नैक गमो नैगमः । ' जिस में कहने के एक नहीं अनेक प्रकार हों, वह नैगम है .
मूलम् :- अत्र सच्चैतन्यमात्मनीति पर्याययोर्मुख्या मुख्यतया विवक्षणम् । अत्र चैतन्यारूपस्य व्यञ्जनपर्यायस्य, विशेष्यत्वेन मुख्यत्वात्, सच्चारूपस्य तु विशेषणत्वेनामुख्यत्वात् ।
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अर्थः- यहां पर 'आत्मा में चैतन्य सत है' इस रूप से पर्यायों में मुख्य और अमुख्य रूप से प्रतिपादन हैं यहांपर चैतन्य नामक व्यंजन पर्याय विशेष्य होने से मुख्य है, सत्त्व नामक पर्याय विशेषण होने से अमुख्य है अर्थात् गौण है ।
विवेचनाः- चैतन्य को सत् कहने पर चैतन्य विशेष्यरूप से प्रतीत होता है। चैतन्य का
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प्रतीत होता है और सत्व विशेषण रूप से आत्मा के साथ भेद और अभेद है सत्त्व जिस प्रकार आत्मा में है, इस प्रकार आत्मा से अभिन्न चैतन्य में भी है । चैतन्य और सत्त्व दोनों धर्म हैं, उनमें न कोई मुख्य है और न गौण । विशेष्य और विशेषण रूप से कहने के कारण चैतन्य मुख्य रूप से प्रतीत होता है और सत्त्व विशेषण रूप से ।
चैतन्य और सत्व दोनों व्यञ्जन पर्याय हैं । यह दो पर्यायों का मुख्य और गौ-भाव से प्रतिपादन करने वाला नैगम है। यहां पर सत्त्वरूप व्यञ्जन पर्यांय तिर्यक सामान्य है । भिन्न भिन्न व्यक्तिओं में समानपरिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं। रत्नाकरावतारिका में