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. ॥ नमः श्री प्रवचनाव ॥
ॐ द्वितीय विभागः। # अथ नय परिच्छेदः।
अब नयों का स्वरूप निरूपण किया जाता है। मूलम् :-प्रमाणान्युक्तानि । अथ नया उच्यन्ते । अर्थः- प्रमाण कहे जा चुके हैं, अब नय कहे जाते हैं। मूलम् :-प्रमाणपरिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकदेश- ग्राहिणस्तदितरांशाप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नयाः। अर्थः- प्रमाण से जिस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का ज्ञान होता है
उसके एक अंश का प्रकाशन करने वाले और प्रकाशित अंश से भिन्न अंश का निषेध न करने वाले विशेष प्रकार के
अभिप्राय नय हैं। विवेचना:- यहां पर प्रमाण शब्द से श्रुत प्रमाण को लिया जाता है।
वादी श्री देवसूरि प्रमाण नय तत्त्वालोक में नय के लक्षण में स्पष्ट रूप से श्रुत-प्रमाण के द्वारा प्रकाशित अर्थ के एक अंश का प्रकाशन करनेवाले अभिप्राय
को नय कहते हैं"नीयते येन श्रुताख्य प्रमाणविषयी कृतस्यार्थस्यांशत दितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपत्रभिप्रायविशेषो नयः॥१॥"
(प्रमाण नय तत्त्वालोक, सप्तम परिच्छेद सूत्र-१)