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से जो विलक्षण है वह भैस है । तब सुननेवाले को जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यभिज्ञान है और उसका विषय विलक्षणता है।
परस्पर की अपेक्षा से वस्तुओ में दूर और समीप का ज्ञान होता है। अनुभव और स्मृति इन दोनों से उत्पन्न होने के कारण यह ज्ञान भी प्रत्यभिज्ञान है।
इस प्रकार के समस्त ज्ञानों में अनुभव और स्मरण का संबंध है।
मूलम:-तत्तदन्तारूपस्पष्टास्पष्टाकारभेदान्नक प्रत्यभिज्ञानस्वरूपमस्तीति शाक्यः ।
अर्थः-बौद्ध कहते हैं-प्रत्यभिज्ञान में दो आकार प्रतीत होते हैं. स्पष्ट और अस्पष्ट । इनमें 'वह' आकार अस्पष्ट हैं और 'यह' आकार स्पष्ट है। आकार भेद के कारण प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप एक नहीं है।
विवेचना:-जहाँ विरोधी धर्मों का संबंध होता है, वहां वस्तु एक नहीं होती। शीत और उष्ण इन दो विरोधी धर्मों की प्रतीति एक वस्तु में नहीं हो सकती । शीत स्पर्श वाली वस्तु जल है और उष्ण स्पर्श वाली वस्तु अग्नि है । पहले जाने हुए पदार्थ में यह वही अर्थ है इत्यादि रूप से जो ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान में शीत और उष्ण स्पर्श के समान दो विरोधी आकार हैं । 'वह' आकार अस्पष्ट है और यह आकार स्पष्ट है। स्पष्ट और अस्पष्ट रूप दो विरोधी आकारों के साथ सबंध होने से यह ज्ञान एक नहीं हो सकता।