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सन्देह युक्त है। अतः यह हेतु भी विपक्ष में सन्दिग्ध वृत्तिवाला अमेकान्तिक है।
मैयायिक उपाधि से युक्त होने के कारण इस हेतु को साध्य का असाधक कहते हैं । उनके अनुसार जो हेतु उपाधि से रहित होता है, वह साध्य का साधक होता है। जो साधन का व्यापक न हो और साध्य का व्यापक हो-वह उपाधि है। यहाँ पर श्यामस्व साध्य है और मित्रापुत्रत्व हेतु है। इस साध्य के साथ इस हेतु की वास्तव में व्याप्ति महीं है। यहाँ पर शाक आदि आहार के परिपाक से उत्पन्न होना उपाधि है, प्रकृत अनुमान में मित्रापुत्रत्व हेतु है । शाकादिपाकजन्यत्व उसका व्यापक नहीं है। जो जो मित्रा का पुत्र हो वह वह विशेष प्रकार के शाकादि के परिपाक से उत्पन्न हो यह आवश्यक नहीं है। शाकादि के परिपाक के बिना भी मित्रापूत्रत्व हो सकता है। यही शाकादिपाकजन्यत्व साध्य श्यामत्व का व्यापक है शाक आदि आहार के परिपाक के बिना श्यामत्व कहीं नहीं प्रतीत होता; इस लिए जहाँ जहाँ श्यामत्व है वहाँ वहां शाकादिपाकमन्यत्व है। इस प्रकार की ग्याप्ति हो सकती है । उपाधि के इस लक्षण से युक्त होने के कारण शाकादिपाकजन्यत्व उपाधि है उपाधि से युक्त होने के कारण मित्रापुत्रस्वरूप हेतु श्यामत्व साध्य का साधक नहीं है। इसी को अप्रयोजक भी कहते हैं, जो हेतु किसी अन्य धर्म के द्वारा प्रयुक्त व्याप्ति का आश्रय ले-बह अप्रयोजक होता है। यहां पर उपाधि अन्य धर्म है, वही वास्तव में व्याप्ति का प्रयोजक है ।
इस रीति से जो लोग हेतु को उपाधि से युक्त अथवा भप्रयोजक कहते हैं । वे भी विपक्ष में हेतु की संदिग्ध वृत्ति